अनंत प्रणय...
अनंत प्रणय
मैं राम नहीं, वह मर्यादा, जो बंधनों में बंधती रही,
मैं वह धारा, जो स्वतंत्र बहती, सीमाएँ नहीं सहती रही।
राम नहीं बन सकता, न चाहूँ वह आदर्श रूप,
जहाँ प्रियतम को त्याग करूँ, जहाँ प्रेम हो कुरूप।
मुझे राम बनना भी नहीं, मैं स्वत्व में अखंड हूँ,
प्रेम का दीपक हूँ, संकल्पों में प्रचंड हूँ।
मैं सीता से प्रेम करता, यह कोई व्रत नहीं,
न धर्मग्रंथों की कथा, न कोई कथित शपथ सही।
वनवास चौदह नहीं, युगों तक संग निभाऊँगा,
पर उसकी परछाई तक, दृष्टि से ओझल न जाने दूँगा।
क्या न्याय, क्या धर्म, यदि प्रिय को छोड़ दूँ,
क्या सत्य, क्या तप, यदि हृदय को तोड़ दूँ।
न अयोध्या का मोह, न किसी लोक की चाह,
सीता जहाँ रहे, वहीं मेरा स्वर्ग, वहीं मेरी राह।
मैं उसे हर क्षण अपनत्व में समेटे रखूँगा,
विपदाओं के पर्वत भी मुस्कान से सहूँगा।
कदापि किसी कारण, उसे तिरस्कृत नहीं करूँगा,
संग-साथ उसका, अनंत युगों तक धरूँगा।
राम नहीं, क्योंकि प्रेम संपूर्ण समर्पण है,
यह समाज के नियमों से परे, निर्मल अर्पण है।
वनवास नहीं, यह प्रेम का अखंड प्रवाह है,
जहाँ त्याग नहीं, अपितु आत्मा का एक रूप साक्ष्य है।
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