मैं ही प्रेम हूँ...
मैं ही प्रेम हूँ
"इतना प्रेम कहाँ से आता है तुम्हारे पास?"
कोई मुझसे पूछता है, बार-बार।
मैं मुस्कुराता, फिर चुप हो जाता,
कैसे समझाऊँ, क्या उत्तर दे पाता?
क्या बताऊँ, कौन-सा शब्द चुनूँ,
प्रेम कोई स्रोत नहीं, जो बाहर से लूँ।
न यह किसी सीमा में कैद किया जाए,
न ही कोई कारण जिससे यह उपज जाए।
मैं तो स्वयं प्रेम हूँ,
जैसे सागर में नीर, जैसे धूप में ताप।
जैसे फूलों में सुवास, जैसे चाँदनी में शीतलता आप।
यह बहता है मुझसे, बिना सोचे, बिना रुके,
न कोई कारण, न कोई शर्तें इसके।
यह प्रेम कोई सौदा नहीं, न कोई भार,
न इसे मापा जाए, न इसका हो आकार।
यह तो बस बहता है, सहज, अनंत,
हर स्पर्श में, हर दृष्टि में, हर क्षण प्रचंड।
तो कैसे बताऊँ, कहाँ से आया?
यह तो सदा था, मुझमें समाया।
ना कोई आदि, न कोई अंत,
बस प्रेम ही हूँ, शाश्वत, अनंत।
Comments
Post a Comment