विरह की वेदना...
विरह की वेदना
क्यों नहीं तुम विलीन हो जाती इस नश्वरता में,
क्यों नहीं शून्य में समाहित हो जाती,
ताकि मैं भी त्याग सकूँ इस जीवन का भार,
इस निस्सार, निष्प्रभ अस्तित्व को।
तुम्हारे जीवित रहने तक यह भ्रम जीवंत है,
यह प्रत्याशा, यह मृगतृष्णा,
कि किसी क्षण, किसी संध्या, किसी प्रभात,
तुम लौट आओगी मेरे शुष्क जीवन में।
पर यह केवल एक मोह का व्यूह है,
एक असंभव कल्पना का विषाक्त जाल,
जिसमें मैं छटपटा रहा हूँ,
पर मृत्यु के आलिंगन तक नहीं पहुँच पा रहा।
यदि तुम्हारी परछाईं ही समाप्त हो जाए,
यदि तुम्हारा अस्तित्व ही शून्य में विलीन हो जाए,
तो मेरा हृदय भी मुक्त हो सके,
तो यह देह भी मृत्यु को समर्पित हो सके।
यह जीवन अब केवल प्रतीक्षा का अंतहीन प्रहर है,
जहाँ न कोई प्रकाश है, न कोई संजीवनी,
एक शापित समय की घड़ी,
जिसकी सुइयाँ पीड़ा की परिधि में अटकी हैं।
तुम्हारी अनुपस्थिति भी तुम्हारी उपस्थिति बन गई है,
एक अदृश्य परछाईं, एक अमिट दंश,
जो मेरी धमनियों में विष की भाँति बह रहा है,
और मुझे जीवित मृत्यु का अभिशाप दे रहा है।
तो क्यों न यह भ्रम ही समाप्त हो जाए,
क्यों न यह आशा ही अंततः बुझ जाए,
ताकि मैं भी इस तुच्छ सांसों की बेड़ियों से,
सदैव के लिए मुक्त हो सकूँ।
क्योंकि जब तक तुम हो,
भले ही दूर, भले ही अज्ञात में,
मैं इस भ्रम में जीता रहूँगा,
और मृत्यु के द्वार तक कभी नहीं पहुँच पाऊँगा।
Comments
Post a Comment