प्रेम बनाम सिद्धांत...
प्रेम बनाम सिद्धांत
मैं चाहता हूँ तुमसे अनुराग करना,
परंतु कर नहीं सकता।
मेरी आस्थाएँ दृढ़ हैं,
मैं उनसे विमुख नहीं हो सकता।
तुम मेरी मर्यादाओं के प्रतिकूल हो,
तुम्हारी उपस्थिती स्वीकार्य है,
पर तुम्हारे प्रति अनुराग सम्भव नहीं।
मैं जानता हूँ,
इस चराचर जगत में प्रेम से श्रेष्ठ कोई दर्शन नहीं,
प्रेम निरंकुश होता है,
उसकी कोई मर्यादा, कोई परिधि नहीं होती।
किन्तु मेरा अंतर्मन
अब तक पूर्णतः समर्पित नहीं हो सका।
शायद मेरे संस्कार, मेरे मूल,
अब तक प्रेम की अपरिमेय शक्ति को आत्मसात नहीं कर सके।
क्योंकि जब भी तुम्हारे निकट आता हूँ,
मन के किसी कोने में संशय जागृत हो उठता है,
मेरा आत्मबल मेरे प्रेम पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है,
और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति अनुराग विकसित नहीं कर पाता।
हृदय में संवेदनाएँ हिलोरें लेती हैं,
परंतु मेरे जीवन के आदर्श
मुझे रोक देते हैं।
यह युद्ध केवल बाह्य नहीं,
यह संघर्ष अंतर्मन का है,
जहाँ भावनाएँ और तर्क परस्पर टकराते रहते हैं।
तुम मुझसे भिन्न हो,
तुम्हारी विचारधारा, तुम्हारी अभिलाषाएँ,
मेरे पथ से विपरीत हैं।
मैं तुम्हारी चपलता में आकृष्ट होता हूँ,
परंतु मेरी संकल्पनाएँ मुझे रोक देती हैं।
शायद यह मेरा अहंकार है,
शायद मेरा भय,
या फिर यह मेरे संस्कारों की कठोर बेड़ियाँ हैं,
जो मुझे तुम्हारे प्रेम में आत्मविस्मृत नहीं होने देतीं।
मैंने प्रेम को महिमामंडित होते देखा है,
सुना है कि प्रेम समस्त अवरोधों को तोड़ सकता है,
परंतु क्या प्रेम स्वयं को भी पराजित कर सकता है?
क्या प्रेम अपने ही मार्ग में खड़े सिद्धांतों को नष्ट कर सकता है?
मैं नहीं जानता…
शायद मेरा हृदय अभी प्रेम की परिपक्वता को नहीं प्राप्त कर सका,
शायद मेरी चेतना अब तक मोह से परे नहीं जा सकी।
पर एक आशा है,
कि तुम मेरी स्थिति समझोगी,
मुझे इस द्वंद्व से मुक्त होने का अवसर दोगी।
तुम मेरे संघर्ष को केवल अस्वीकार नहीं करोगी,
अपितु उसकी महत्ता को भी स्वीकारोगी।
क्योंकि प्रेम केवल मिलन ही नहीं,
कभी-कभी यह आत्मसंघर्ष का दूसरा नाम भी होता है।
रूपेश रंजन...
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