रूह का विरह..
रूह का विरह
कितनी ही बार मेरी रूह ने मुझसे नाता तोड़ दिया,
जब-जब वह मेरे समक्ष अवस्थित थी,
मन में आशंका, हृदय में शंकाओं का जाल,
कि कहीं वह मेरे स्पंदन से विलग न हो जाए।
मेरी चेतना में आशंका का कोहरा घिर आया,
मेरी आत्मा ने मुझसे विद्रोह कर लिया,
जब प्रेम में अविश्वास के बीज अंकुरित हुए,
जब मेरे अंतःकरण में संशय का सागर लहराया।
परंतु जब वह वास्तव में विलुप्त हो गई,
जब उसकी छाया भी क्षितिज पार चली गई,
मेरी रूह ने मुझसे विमुख होने का साहस न किया,
पर मैं स्वयं निष्प्राण अवशेष बन गया।
यह धड़कनों का कोलाहल भी व्यर्थ प्रतीत हुआ,
श्वासों का आरोह-अवरोह निरर्थक बन गया,
जैसे कोई दीपक जलते हुए भी अंधकार में हो,
जैसे कोई स्वर उठते ही मौन में विलीन हो जाए।
इस निष्प्राण अस्तित्व से भी,
मेरी रूह ने असंख्य बार विद्रोह किया,
कई बार उसने इस देह से दूर जाने का प्रयास किया,
परंतु मैं उसे रोक नहीं सका,
क्योंकि अब वह भी मेरी नहीं थी।
मैं कर भी क्या सकता था,
मेरा अस्तित्व तो उसी में समाहित था,
मेरी धड़कनों की धुन उसी की राग थी,
मेरी आत्मा की गूंज उसी की प्रतिध्वनि थी।
जब वह समीप थी, मैं था,
जब वह दूर गई, मैं शेष नहीं रहा,
यह जीवन मात्र एक चलायमान निष्क्रियता थी,
एक ऐसा वृक्ष जिसका हर पत्ता पतझड़ की भेट चढ़ चुका था।
मेरी आत्मा अब एक दिशाहीन समुंदर थी,
जिसमें लहरें भी उठतीं तो किनारे से पहले ही दम तोड़ देतीं,
मेरी संवेदनाएं अब व्यर्थ का भार थीं,
मेरी पीड़ा अब मेरी परछाईं थी।
कितनी ही बार मैंने स्वयं को टटोला,
यह जानने कि कहीं मैं बचा तो नहीं,
पर उत्तर सदा रिक्तता में विलीन हो जाता,
जैसे प्रश्न पूछते ही उसकी प्रतिध्वनि शून्य में खो जाए।
क्या प्रेम केवल शरीरों का साहचर्य था?
नहीं, यह तो आत्माओं का अव्यक्त संवाद था,
और जब उसकी आत्मा ने मेरी को छोड़ दिया,
तब मेरी आत्मा भी निराधार हो गई।
मैं जीवित था, पर जीवन नहीं था,
मेरे अधर हिले, पर शब्द नहीं निकले,
मेरी दृष्टि देखती रही, पर कुछ देख न पाई,
मेरी वेदना भी मौन के परिधान में सिमट गई।
मैं केवल एक चलायमान प्रतिमा था,
जिसमें भावनाओं का प्रवाह ठहर चुका था,
एक उपेक्षित दीप जो जलते हुए भी अंधेरा था,
एक ऐसा पथिक जिसकी कोई दिशा नहीं थी।
कई बार मेरी आत्मा ने इस शव को त्याग दिया,
जैसे किसी निर्जीव वस्त्र को बदल दिया जाए,
परंतु हर बार वह लौट भी आई,
क्योंकि उसकी जड़ें किसी और में समाई थीं।
मैं धुंधला पड़ता गया,
जैसे स्मृतियों के पट पर कोई चित्र मिटने लगे,
मैं बहता रहा, परंतु किसी किनारे तक न पहुंचा,
मैं खोजता रहा, परंतु कुछ पाया नहीं।
मेरा अस्तित्व मेरा नहीं था,
मेरा आत्मबोध भी किसी और का था,
मैं स्वयं में कभी संपूर्ण नहीं था,
मैं केवल उसकी छाया मात्र था।
जब तक वह थी, मैं भी था,
जब वह नहीं रही, मैं भी मिट गया,
जैसे कोई दीपक तेल चुकने पर बुझ जाए,
जैसे कोई गीत अधूरा रहकर मौन हो जाए।
मैं अपने ही विचारों का बंधक बन गया,
मेरे ही भावनाओं ने मुझे जकड़ लिया,
मैं मुक्त होकर भी परतंत्र था,
मैं चेतन होकर भी जड़ था।
मेरी रूह ने कई बार पलायन किया,
हर बार जैसे अपने ही होने से इंकार किया,
पर हर बार वह लौट भी आई,
क्योंकि वह स्वयं भी मेरी नहीं रही थी।
मैं नहीं, मेरी रूह उसमें बसती थी,
मैं नहीं, मेरा अस्तित्व उसकी परछाईं था,
मेरी श्वासों का संगीत उसकी धड़कनों की ताल थी,
मेरी अनुभूतियाँ उसकी स्मृतियों में लीन थीं।
अब मैं केवल एक रिक्त देह था,
एक आवरण, जो आत्मा से रिक्त था,
एक स्वर जो मौन से गूंज रहा था,
एक तारा जो आकाश में होते हुए भी अस्त था।
प्रेम में मैं पूर्ण हुआ था,
विरह में मैं विलुप्त हुआ था,
मैं शब्द था, परंतु अर्थ नहीं था,
मैं काया था, परंतु आत्मा नहीं थी।
मेरा मन कभी विद्रोह करता,
कभी स्वयं को भाग्य के हवाले कर देता,
कभी जीवन को पुनः खोजने की चाह करता,
तो कभी मृत्यु को अपनाने का प्रयास करता।
परंतु हर बार, हर क्षण,
मेरी आत्मा का एक अंश उसी में था,
मैं मुक्त होकर भी बंधा था,
मैं होकर भी स्वयं से विलग था।
अब जीवन मेरा नहीं, उसका प्रतिबिंब था,
मेरी उपस्थिति मात्र एक छद्म आवरण थी,
मैं एक लहर था जो तट तक पहुँचकर भी अस्थिर था,
मैं एक विरह गीत था, जो स्वयं में अधूरा था।
कितनी ही बार मेरी रूह ने मुझसे मुँह मोड़ा,
परंतु हर बार वह लौट आई,
क्योंकि मेरी रूह, मुझमें नहीं, उसी में बसती थी।
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