अस्तित्व की अनिश्चितता
अस्तित्व की अनिश्चितता
जैसे ही कोई तुम्हें पहचान ले,
तुम वही नहीं रहते जो तुम पहले थे।
जैसे दर्पण में छवि दिखती है,
पर पास जाओ तो धुंधली बिखरती है।
पहचान एक भ्रम है, एक आभास,
जो जितना देखे, उतना बदले प्रकाश।
तुम्हारी छवि, तुम्हारा स्वरूप,
हर नज़र में ले अलग रूप।
जो अनजाना था, मुक्त था संपूर्ण,
अब सीमाओं में बंधा, हुआ अधूरा पूर्ण।
पहले जो तुम थे, अछूते, स्वतंत्र,
अब परिभाषाओं में बंधे, पराजित अंतः।
हाइजेनबर्ग ने कहा, एक सत्य पुराना,
जानने से ही बदलता है हर खजाना।
जिसे तुम समझते हो स्थिर और अटल,
दरअसल वो बहता है हर क्षण सरल।
आत्मा, विचार, चेतना की लहरें,
सांसों संग बहें, भावों संग ठहरें।
पर जब कोई ठहराए, करे सीमाओं में कैद,
वो स्वतंत्रता ही खो दे, बदल जाए भेद।
तो क्या पहचान सत्य का प्रमाण?
या यह मात्र भ्रम का एक सामान?
जो देखता है, वही बदल देता है,
जो खोजता है, वही भटका देता है।
इस अनिश्चितता में ही जीवन का नृत्य,
जहाँ हर पल नया, हर क्षण में यंत्र।
परिभाषाओं से परे, समझ से अलग,
तुम सदा बदलते, पर रहते अबद्ध।
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