छलावा...

 

छलावा

तुम तो कभी थी ही नहीं,
तो वर्तमान की चर्चा ही निरर्थक है,
एक शून्य का विस्तार,
जो कभी अस्तित्व में था ही नहीं।

सूरज का बादलों से कोई नाता नहीं,
फिर भी बादल अकस्मात् राह में आ बैठते हैं,
बिना आमंत्रण, बिना अधिकार,
जैसे कोई भ्रम, जो सत्य को परिभाषित करने का प्रयास करे।

क्या इससे संबंध की प्रमाणिकता सिद्ध होती है?
नहीं, यह केवल छायाओं का विलास है,
एक क्षणिक आभास,
जो सत्य के प्रकाश में विलुप्त हो जाता है।

परंतु इन कुछ पल की छायाओं में,
बादल स्वयं को अधिक प्रभावशाली मान बैठते हैं,
जैसे उनके बिना सूर्य का अस्तित्व अस्वीकार्य हो,
जैसे उनकी क्षणभंगुर उपस्थिति कोई अमिट सत्य हो।

पर सत्य तो अडिग रहता है,
अचल, निर्विकार, अविनाशी,
बादल मिट जाते हैं, विलीन हो जाते हैं,
सूरज पुनः अपने वैभव में चमक उठता है।

तुम भी एक बादल ही थी शायद,
क्षणिक, अस्थिर, भ्रमित,
जो कुछ पलों के लिए अपनी छाया में,
सत्य को ढकने का प्रयास कर रही थी।

परंतु मैं सूर्य था, अटल, अपरिवर्तनीय,
मैं जानता था कि यह बादल केवल भ्रम हैं,
जो अंततः हवा में घुलकर विलुप्त हो जाएंगे,
और मैं पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में रहूंगा,
अकेला, किंतु पूर्ण।

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