किसी बच्चे को शून्य सिखाना आसान है, या एक सिखाना...
किसी बच्चे को शून्य सिखाना आसान है,
या एक सिखाना...
किसी बच्चे को शून्य सिखाना आसान है,
बस कह दो—"ये कुछ भी नहीं है,"
पर उसे "एक" सिखाना मुश्किल है,
क्योंकि उसे समझाना होगा कि "कुछ" क्या होता है...
एक उम्मीद, एक अपनापन,
एक हाथ, जो थामा था कभी,
एक आवाज़, जो गूंजती थी दिल में,
एक चेहरा, जो कभी धुंधला नहीं पड़ता।
पर क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है—
किसी का जिंदगी में न होना,
या किसी का आकर फिर चला जाना?
जो कभी था ही नहीं,
उसे सोचकर शायद दिल ना तड़पे,
पर जो आकर चला गया,
वो हर याद में जख़्म छोड़ जाता है।
खाली हाथ रहना आसान है,
पर भरे हाथों से छिन जाना दर्द देता है।
खामोश दीवारों से कोई उम्मीद नहीं,
पर जो बोलते-बोलते चुप हो जाए,
वो हर सन्नाटे में चीख़ बन जाता है।
तो बताओ, कौन सा ग़म बड़ा है?
जिसे कभी पाया ही नहीं,
या जिसे पाकर खो दिया?
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