"पल रहे ज़ख़्म पहलगाम के"... Pahalgaam attacks
"पल रहे ज़ख़्म पहलगाम के"
आग बरसी थी आसमान से,
चीख़ों ने चीर दिया था धैर्य का घूंघट,
पहलू में थी मासूमियत की मिट्टी,
फिर भी हथियारों ने बो दी नफ़रत।
नदी भी सहम गई थी उस दिन,
पेड़ों ने भी रुककर रोना चाहा,
खून से भीगी थी वादी की चादर,
धरती ने कांपकर खुद को समेटा।
माएं दौड़ीं अपने बच्चों के लिए,
बुज़ुर्गों ने कांपते हाथों से दुआ मांगी,
पर गोलियों की बारिश न थमी,
जिंदगी ने बस आहें बटोरीं।
किस गुनाह की सज़ा मिली मासूमों को?
किस जंग में छूट गए ये अनगिनत सपने?
फिर भी वादी ने अपनी चुप्पी में,
इक नई उम्मीद का बीज बोया।
शहीदों का लहू पुकारता है,
"मत टूटो, मत बिखरो, मत झुको,
हमारी कुर्बानी से निकलेगी रौशनी,
पहलगााम फिर गाएगा अमन के गीत।"
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