"ऑपरेशन सिंदूर: शौर्य का रक्तसिक्त प्रण"

"ऑपरेशन सिंदूर: शौर्य का रक्तसिक्त प्रण"

गगन सन्नाटा बन गया था, धरती मौन पड़ी थी,
पहलगाम की घाटी फिर एक बार लहू से सजी थी।
श्रद्धा की यात्रा में जब शांति की अभिलाषा चली,
वहीं कायरता ने पीठ पीछे वार की कुटिल कली।

रक्त की धाराएं जब तीर्थ में बहने लगीं,
माताओं की गोदें वीरहीन सिसकने लगीं।
तब उठे सिंह सरीखे प्रहरी, अंगारों से तपे हुए,
ऑपरेशन 'सिंदूर' बना प्रतीक, हिम्मत से जमे हुए।

शूरवीरों ने सौगंध खाई, अश्रु से नहीं बहने देंगे,
पर्वतों के उस पार छिपे छलियों को अब नहीं सहने देंगे।
हर रग में वीरता के ज्वालामुखी धधक उठे,
भारत मां के सपूत, अंगारों पर भी न थक उठे।

'सिंदूर'— जो सुहाग का प्रतीक है,
अब बना शौर्य का प्रतीक,
जहाँ हर जवान का हथियार
मातृभूमि के लिए बना संगीत।

बर्फीली वादियों में जब छाया अंधकार,
कठिनाइयों को किया स्पर्श, नहीं स्वीकार हार।
रातों में सन्नाटे के भीतर गरजे थे बूटों के स्वर,
सटीकियों ने बुना संहार, बना हर प्रहार अमोघ प्रहर।

नक्शों पर बिखरे संकेतों की गूंज थी कुछ कहती,
"यह शांति नहीं, प्रतिशोध की ज्वाला अब बहती।"
ड्रोन की आँखें, बंदूक की सांसें,
चीर गईं अंधियारे के उस पार की साँसें।

ध्वस्त हुई वो हर परछाईं, जो भय बोती थी,
अब डर के बीज नहीं, रणचंडी की आग रोपती थी।
सिर झुकाकर घाटी बोली, "हे शूरवीरों, नमन् तुम्हें,
तुमने फिर से लिखा है स्वर्णाक्षरों में अमर प्रणय।"

किंतु... क्या भूल सकेंगे हम वो पहलगाम की चीखें?
जहाँ जीवन की डोर टूटी, रहीं अधूरी कई सीखें।
वो नन्हें पाँव जो नहीं लौटे कभी माँ की गोद में,
वो सिंदूर जो बह गया, शहादत की ओस में।

ऑपरेशन सिंदूर— प्रतिकार नहीं, पराक्रम की पूजा है,
हर गोली में छिपा न्याय, हर प्रहार में सत्य की आराधना है।
ये केवल सैन्य चाल नहीं, ये राष्ट्र की आत्मा की पुकार है,
जो कहती है— "अब नहीं सहेंगे, अब हर आँसू का हिसाब है।"

युद्धक्षेत्र नहीं, यह पवित्र यज्ञ बना,
जहाँ हर वीर की शपथ मातृभूमि के लिए तना।
न केवल दुश्मन के विरुद्ध चला यह प्रचंड घात,
बल्कि भीतर की कमज़ोरियों पर भी कर गया प्रहार।

ओ मातृभूमि! तेरे चरणों में सिंदूर चढ़ाया गया है,
किसी दुल्हन का नहीं, यह तिरंगे का श्रृंगार रचाया गया है।
यह युद्ध था मौन प्रतिशोध का, जिसमें अश्रु भी अस्त्र बने,
और आँधियों में तपे हुए संकल्प, शौर्य के मंत्र बने।

क्या उन माँओं की पीड़ा कभी हम बाँट सकेंगे?
जिन्होंने लाल खो दिए, पर श्राप नहीं दिया, बस वंदन करेंगे।
ऑपरेशन सिंदूर, तेरी कथा अमर रहे,
हर पीढ़ी तुझसे प्रेरणा ले, तेरे पदचिह्नों पर चले।

घाटी अब पुनः मुस्कराएगी, पर ये मुस्कान आसान नहीं,
जो लहू बहा है वहाँ, वो इतिहास में अनकहा नहीं।
जब-जब चूमेंगे तिरंगा, उस 'सिंदूर' को याद करेंगे,
जो नारी के ललाट से उठकर भारत के मस्तक पर चढ़ा।


रचयिता: रूपेश रंजन


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