दो जून की रोटी: भूख से परे एक जीवन दर्शन(02/06/2025)
दो जून की रोटी: भूख से परे एक जीवन दर्शन
जब भी हम ‘दो जून की रोटी’ सुनते हैं, हमारे ज़हन में एक साधारण सी तस्वीर उभरती है – दिन में दो वक्त का खाना। लेकिन क्या यह सिर्फ खाने तक सीमित है? क्या यह सिर्फ भूख मिटाने का तरीका है? नहीं। 'दो जून की रोटी' सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि हमारे समाज, संस्कृति और जीवन का एक गहरा दर्शन है।
रोटी: ज़िंदगी का मूल आधार
रोटी केवल आटे से बनी एक चपाती नहीं होती। यह ज़रूरत की रेखा है, जहां से इंसान की असली जंग शुरू होती है। एक नवजात शिशु का पहला पोषण माँ का दूध होता है और मृत्यु के बाद भी अंतिम संस्कार से पहले उसके मुख में तुलसी या कुछ खाद्य सामग्री रखी जाती है। यानी इंसान का जीवन भोजन से शुरू होकर भोजन पर ही समाप्त होता है।
‘दो जून की रोटी’ का मतलब है – जीवन यापन के लिए कम से कम ज़रूरी भोजन या आमदनी। ये रोटी हमारे पेट के साथ-साथ आत्मसम्मान और अस्तित्व की भूख भी मिटाती है।
साहित्य और सिनेमा में 'रोटी'
भारतीय साहित्य और फिल्मों में रोटी का जिक्र बहुत बार हुआ है, लेकिन सबसे सशक्त तरीके से इसे मुंशी प्रेमचंद ने प्रस्तुत किया। ‘गोदान’ का होरी हो या ‘कफन’ के पात्र – ये किरदार रोटी के लिए तड़पते हुए नज़र आते हैं। उनकी रोटी केवल भोजन नहीं, बल्कि उनके जीवन की त्रासदी और संघर्ष का प्रतीक बन जाती है।
1979 में आई फिल्म ‘दो जून की रोटी’ ने भी यह दिखाया कि रोटी पाना सिर्फ पेट भरने का जरिया नहीं, बल्कि इंसान के सम्मान और पहचान का मुद्दा है।
रोटी के कई रंग
रोटी एक नहीं होती – इसकी कई परतें हैं। यह मेहनत से मिली रोटी हो सकती है, या रिश्वत से पाई गई। किसी मजबूर माँ ने अपने बच्चे के लिए जो रोटी बचा रखी हो, वह सबसे अमूल्य हो सकती है। राजनीति में भी अक्सर 'रोटियाँ सेंकने' की बात होती है – जहाँ स्वार्थ, लालच और सत्ता की भूख छुपी होती है।
रोटी का स्वाद उसके स्रोत से तय होता है। पिता के हाथ की रोटी, माँ की ममता से बनी रोटी, ससुराल में मिली पहली रोटी, या प्रेमिका द्वारा दी गई रोटी – हर एक रोटी में एक अलग भाव, एक अलग कहानी छुपी होती है।
क्या आज भी ‘दो जून की रोटी’ एक सपना है?
विकास और प्रगति के इस दौर में भी भारत का एक बड़ा हिस्सा आज ‘दो जून की रोटी’ के लिए जूझ रहा है। महंगाई, बेरोज़गारी और असमानता ने इस रोटी को और भी दूर कर दिया है। आज भी कई घरों में यह रोटी एक सपना है, जिसे पूरा करने के लिए लोग दिन-रात मेहनत करते हैं।
अंत में...
‘दो जून की रोटी’ एक ऐसा मुहावरा है, जो हर इंसान के जीवन की सच्चाई को बयां करता है। यह भूख, संघर्ष, सम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। रोटी कभी केवल आहार नहीं रही, यह हमारे समाज का दर्पण है – जिसमें हर व्यक्ति की कहानी, हर घर का संघर्ष और हर माँ की ममता झलकती है।
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आपका क्या विचार है? क्या 'दो जून की रोटी' आज भी उतनी ही जरूरी है जितनी पहले थी? नीचे कमेंट में ज़रूर बताएं।
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