"छह महीने"...
"छह महीने"
(एक लड़की की चुप सी पुकार)
कितनी मुश्किलात है, कितना भारी बोझ,
छह महीने मिले हैं बस — जैसे सज़ा का रोज़।
हर पल टिक-टिक करता है, हर सांस में डर है,
कहीं गिर गई तो सबकुछ छिन जाने का ख़तरा है।
अगर सफल ना हो पाई, ना कोई नौकरी मिली,
तो खर्च रुक जाएगा, पढ़ाई वहीं थमी।
और फिर बिना पूछे, ले जाया जाएगा डोली में,
सपनों की चिता सजेगी किसी पराई टोली में।
क्या यही है उसका कसूर — कि वो एक लड़की है?
क्या सपनों का हक़ लड़कियों का अधूरा लिखी किस्मत की पर्ची है?
कितना अमानवीय है ये, कितना गहरा अन्याय,
जैसे जन्म लेते ही उस पर चल पड़े हों फैसले बनाए-बनाए।
अगर कोई लड़का होता उसकी जगह,
क्या उसे भी मिलती ये सज़ा, ये दहशत, ये तपिश, ये उलझन की राह?
मुझे संदेह है...
क्योंकि लड़कों को वक्त दिया जाता है —
गिरने का, संभलने का,
कभी-कभी नाकाम होने का, फिर से कोशिश करने का।
पर लड़की को?
छह महीने, और फिर...
सिर्फ़ चुप्पी, सिर्फ़ समझौता,
सिर्फ़ "अब तो शादी करनी ही होगी" का मौन फ़ैसला।
मगर सुनो —
वो लड़की कोई बोझ नहीं, कोई डरती हुई परछाई नहीं।
वो खुद चल सकती है, गर साथ चले कोई उम्मीद की किरण।
छह महीने अगर तुम्हें कम लगते हैं,
तो सोचो — वो हर दिन, हर पल, हर आंसू,
तुमसे कहीं ज़्यादा लड़ाई लड़ती है।
उसके सपनों को दुआ दो, नहीं तो कम से कम
बांधने की रस्सी मत दो।
रुपेश रंजन
Parallel to society!
ReplyDelete♥️Awesome ☺️♥️
ReplyDelete