"मैं कुछ नहीं कर सका"

"मैं कुछ नहीं कर सका"
(एक असहाय प्रेमी की पीड़ा में भीगी कविता)

वो तड़पती है हर महीने,
जैसे कोई अंधड़ भीतर से चीरता हो उसे।
मैं बस देखता हूँ —
आँखों से झाँकती लाचारी को,
हाथ बँधे हैं मेरे,
जैसे कोई ज़मीर झुका खड़ा हो मोर्चे पर… बिना अस्त्र के।

उसकी कमर पर हाथ रख
मैं बस कह पाता हूँ — "सब ठीक हो जाएगा",
जानते हुए — ये झूठ है,
कम से कम इस वक्त तो।

उसके माथे की सिलवटें
मेरे सीने में चुभती हैं — काँटे की तरह,
मैं खड़ा हूँ पास उसके,
फिर भी सौ मील दूर...
क्योंकि मैं मर्द हूँ,
और इस दर्द से अछूता।

काश, ये खून मेरी रगों से बहता,
काश, ये पीड़ा मेरी नसों में फटती,
तो शायद मैं समझ पाता
वो चीख जो कभी उसके होठों तक नहीं आती।

मैं टूटता हूँ हर बार,
पर आवाज़ नहीं होती मेरी टूटन की।
क्योंकि उसके सामने
मुझे मज़बूत दिखना होता है —
झूठ की एक और परत ओढ़कर।

और वो मुस्कुरा देती है…
दर्द में भी,
मेरे लिए।
और मैं फिर हार जाता हूँ —
एक मर्द होकर भी।




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