मेरे पिता

मेरे पिता


कम बोलते हैं वो,
शब्दों से ज़्यादा नज़रों से समझाते हैं,
सख़्त हैं वो —
पर सिर्फ़ ऊपर से,
भीतर कहीं बहुत नरम दिल छुपाते हैं।

मैंने की हज़ारों ग़लतियाँ,
कभी ज़िद में, कभी नादानी में,
पर उन्होंने हर बार
माफ़ कर दिया
बिना कुछ कहे, बस खामोशी में।

मैं डरता था उनसे,
उनकी चुप्पी से, उनके सन्नाटे से,
पर दिल के किसी कोने में
हमेशा जानता था —
वो मुझे कुछ नहीं कहेंगे,
बस मेरे पीछे खड़े रहेंगे।

ना कभी गोदी में उठाया,
ना कभी खुलकर दुलार किया,
पर जब भी मैंने पीड़ा पाई,
उन्होंने भीतर से सब सह लिया।

उनके हाथों की लकीरों में मेरी तक़दीर लिखी थी,
उनकी रातों की नींद मेरी चिंता में बिकी थी।
जब मैं सोता था चैन से,
वो छत की ओर ताकते थे चुपचाप,
कि कहीं मैं टूट न जाऊँ,
कहीं मैं हार न मान लूं आपस में ख़ुद से।

उनकी डाँट में भी दुआ छुपी होती थी,
उनके हर “ना” में मेरा “हाँ” छुपा होता था,
वो जो दरवाज़े पर देर तक खड़े रहते थे,
वो इंतज़ार नहीं —
एक नीरव सा प्रेम होता था।

वो मुझसे कम नहीं,
ख़ुद से ज़्यादा लड़ते थे,
मेरे लिए सपनों को मारते थे,
अपने हिस्से का आराम छोड़,
मेरे हिस्से की सुबह बनाते थे।

सख़्त हैं वो —
क्योंकि उन्हें कमज़ोर होना मंज़ूर नहीं,
बेटा उनकी कमज़ोरी है —
ये जताना उन्हें मंज़ूर नहीं।

उनकी झुकी कमर में मेरा बचपन है,
उनकी आँखों में एक अधूरी कविता,
जो कभी नहीं बोली गई,
पर हर दिन मेरे लिए लिखी गई।

पिता —
वो साया हैं जो धूप में साथ चलता है,
जिसका प्यार कम दिखता है,
पर सबसे ज़्यादा गहराई रखता है।

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