ओशो और मैं: एक अनदेखा दर्पण
ओशो और मैं: एक अनदेखा दर्पण
जब जीवन के कोलाहल से दूर, मैं अपने ही भीतर उतरता हूँ, तो कहीं एक गूंज सुनाई देती है — वो आवाज़ शब्दों की नहीं होती, लेकिन उसकी ऊर्जा मुझे भीतर तक हिला देती है। वो आवाज़ ओशो की है। और हर बार जब वो भीतर गूंजती है, मैं सोचता हूँ — क्या मैं उसी रास्ते पर चल रहा हूँ जिस पर वो कभी चले थे, या क्या हर जाग्रत आत्मा की ध्वनि एक जैसी होती है?
यह तुलना नहीं है। ओशो एक क्रांतिकारी संत थे, और मैं अभी एक प्यासा राही हूँ — लेकिन उनके विचारों और मेरे अनुभवों के बीच एक अदृश्य पुल है। एक समानता जो शब्दों में नहीं, अनुभवों में जी जाती है।
1. विरोधाभासों से प्रेम
ओशो ने विरोधाभासों को गले लगाया — प्रेम में विरक्ति, विद्रोह में समर्पण, और आत्मा में अहं का विसर्जन। मैं भी उन्हीं विरोधाभासों में जीता हूँ — दर्द लिखते हुए सुकून तलाशता हूँ, टूट कर भी दूसरों को सहारा देता हूँ, चुप रहकर भी बहुत कुछ कह जाता हूँ।
जैसे ओशो, मैं भी गलत समझे जाने से नहीं डरता। क्योंकि सत्य अक्सर वहीं छिपा होता है जहाँ भाषा की पहुँच नहीं।
2. परंपराओं से टकराव
ओशो ने समाज की जड़ों को झकझोरा — धर्म, विवाह, नैतिकता, ईश्वर — किसी को नहीं छोड़ा। मेरे भीतर भी वही बेचैनी है। परंपरा में छिपी हिंसा, आस्था में छिपा भय, संबंधों में छिपा स्वार्थ — इन सब पर प्रश्न उठाना मेरे लिए भी सहज है।
हम दोनों को झूठा आदर नहीं चाहिए, कड़वा सच चाहिए।
3. अकेलेपन का आलिंगन
ओशो ने अकेलेपन को नकारा नहीं, अपनाया। और मैंने भी उस अकेलेपन को खुद का सहचर बना लिया है। यह अकेलापन दुख नहीं, तप है। जहाँ दुनिया की आवाज़ें थमती हैं, वहीं आत्मा बोलने लगती है।
मुझे अकेले रहने से डर नहीं लगता। मुझे खुद से कट जाने से लगता है।
4. अभिव्यक्ति की आग
ओशो के शब्द आग बनकर बरसे। मेरे शब्द धीमे हैं, लेकिन उनमें भी चिंगारियाँ हैं। मैं भी उस सच को लिखता हूँ जिसे लोग महसूस तो करते हैं, पर कह नहीं पाते। दर्द, अन्याय, भीतर की लड़ाई — ये मेरे भी विषय हैं।
अगर किसी को मेरी बातों से झटका लगता है, तो अच्छा है — क्योंकि सत्य को झकझोरना ही चाहिए।
5. प्रेम, जो सीमाओं से परे है
ओशो ने जिस प्रेम की बात की, वो किसी रिश्ते में बंधा नहीं था — वो एक व्यापक ऊर्जा थी। मैंने भी उसी प्रेम को महसूस किया है — जो एक अनजान बच्चे के आंसुओं से दुखी हो जाता है, जो युद्ध की खबर पढ़ते ही टूट जाता है, जो बिना किसी शर्त के बहता है।
मेरे लिए भी प्रेम बंधन नहीं, विस्तार है।
ओशो और मैं: एक ही वर्षा की दो बूँदें
मैं ओशो नहीं हूँ। मैं उनकी नकल भी नहीं करता। लेकिन जब मैं खुद में झाँकता हूँ, तो उनकी छवि सी महसूस होती है — वैचारिक विद्रोह, संवेदनशीलता, और मौन की भाषा।
शायद हर आत्मा जो सतह पर जीने से इनकार करती है, कभी न कभी ओशो जैसी अनुभूति से गुजरती है।
मैं उनका अनुयायी नहीं हूँ,
ना ही उनका उपासक —
मैं उन्हें पहचानता हूँ।
क्योंकि मेरे मन और आत्मा के इस मौन युद्ध में —
वो पहले ही लड़ चुके हैं।
और अब, मैं भी उसी रणभूमि पर चल रहा हूँ।
Comments
Post a Comment