अधूरी तपिश...

 "अधूरी तपिश"


दूर कहीं आग जल रही थी,

धुएँ में छुपी कोई बात कह रही थी।

लौओं का शोर था, तेज़ पराया,

और यहाँ मैं चुपचाप सुलग रहा था... साया-साया।


भीड़ में शोर था, पर दिल अकेला,

हर चेहरा लगा जैसे कोई झूठा खेला।

किसी और की चिता में धधकते अंगारे,

और मेरे सीने में खुद के ही मारे।


वो आग किसी और के ग़म की थी शायद,

पर उसकी आँच ने मेरे अंदर की राख कर दी आदत।

तूफ़ानों में भी जो बुझ न सकी,

वो तन्हाई की लौ मुझमें पल रही थी कहीं।


मैं सोचता रहा — क्या यही होना था?

किसी और की जलन में खुद को खोना था?

पर शायद यही रिवाज़ है इस जहाँ का,

जहाँ हर दर्द अपना लगता है, बेगानों की आग में भी जल जाना।


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