"एक लड़की फेसबुक से"...
"एक लड़की फेसबुक से"
(प्रेम, भरोसा और वियोग पर आधारित एक कविता)
एक लड़की मेरी ज़िंदगी में आई,
फ़ेसबुक की एक रिक्वेस्ट से बात बढ़ी।
सपनों में रंग भरने लगी,
कहने लगी — शादी से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं।
हर दिन, हर लम्हा खास होने लगा,
प्यार ने हदें पार कीं,
रातें जागी, दिलों ने क़सम खाईं —
कि अब जुदाई नामुमकिन सी लगे।
पर अचानक, सबकुछ बदलने लगा।
पहले Facebook ख़ामोश हुआ,
फिर Instagram भी ग़ायब।
जो बातें पहले हँसी लाती थीं,
अब वही उसे चुभने लगीं।
कहने लगी —
"मुझे भरोसा चाहिए, उम्र भर का साथ चाहिए,
लेकिन अब पापा नहीं मानेंगे,
किसी भी हाल में नहीं।
माफ़ करो — अब मैं शादी नहीं कर सकती।”
मैं स्तब्ध था...
क्या कर सकता था?
नसें नहीं काट सकता था —
क्योंकि मेरी माँ की आँखें अब भी मुझे देखती हैं।
उसके घर के बाहर
पेट्रोल छिड़क कर खुद को आग नहीं लगा सकता था —
क्योंकि मेरी बहन अब भी मुझे भाई कहती है।
मैं बस चुप रह गया।
सह गया।
और ज़िंदगी को पुराने ढंग से जीने लगा।
पर सच तो ये है —
जब कोई छोड़ कर जाता है,
तो एक हिस्सा साथ ले जाता है।
भरोसे की डोरी जब टूटती है,
तो सिर्फ़ लड़की नहीं,
लड़का भी बिखरता है।
लड़कों का दर्द कम नहीं होता,
बस वो शोर नहीं मचाते।
वो वादा नहीं मांगते,
वो प्यार मांगते हैं।
और लड़कियाँ?
वो सब कुछ मांगती हैं —
प्यार, भरोसा, सुरक्षा,
और जब सब मिल जाए,
तो कहती हैं — "अब पापा नहीं मानेंगे।”
प्यार नहीं करतीं,
डील करती हैं —
प्रैक्टिकल होती हैं।
और हम?
हम इमोशनल कहलाते हैं —
कमज़ोर कहे जाते हैं।
लेकिन क्या तुम जानती हो?
कमज़ोर वो नहीं होता जो सबके सामने रो पड़ता है,
कमज़ोर वो होता है —
जो सब सहकर भी
चुपचाप मुस्कुराता है,
जो प्यार में टूटकर भी
दूसरों के लिए मज़बूत बना रहता है।
रुपेश रंजन
Nice one
ReplyDelete🙁
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