"देवता का दर्द"
"देवता का दर्द"
देवता का दर्द कोई समझ नहीं पाया,
स्वर्ग के शाश्वत सन्नाटे को छोड़कर,
जब उसने पृथ्वी की चहल-पहल ओढ़ी,
तो पाया — यहां जीवन नहीं,
बस संघर्ष की एक लंबी प्रतीक्षा है।
मानव का जीवन लेकर आया था वह वरदान समझकर,
पर यह वरदान नहीं, एक निरंतर जलती अग्नि थी —
जिसमें हर पल, हर अंग, हर भावना तपती रही।
देह एक पिंजरा निकला —
जिसमें आत्मा हर क्षण टकराती रही।
दिन चढ़े तो अस्थियों में जकड़न,
रात गिरे तो स्मृतियों में टूटन।
हर ऋतु, हर हवाओं का झोंका
जैसे उसके भीतर के देवत्व को कुचल जाता हो।
देवता अब रोता है — भीतर ही भीतर।
क्योंकि वह जानता है — उसे रोते देख
कोई आशा भी टूट जाएगी।
जो कभी आशीर्वाद देता था,
आज अपनी हथेलियों में केवल कम्पन महसूस करता है।
वो देखता है —
माँ भूखी है, पर बच्चे को दूध पिलाती है,
बेटा शव बन चुका पिता को कंधा देता है,
प्रेमिका हर दिन किसी लौटते वादे में दम तोड़ती है,
और मनुष्य — अपनी ही छाया से डरता है।
वो सोचता है —
क्या यही मानव होना है?
हर सांस में एक साज़, पर सुर टूटे हुए।
हर आंख में सपना, पर पलकें भीगी हुईं।
हर दिल में प्यार, पर क़ब्र-सी खामोशी।
और फिर वह खुद से पूछता है —
"क्या मैंने गलती की?"
देवत्व छोड़, यह नश्वर देह क्यों अपनाई?
जहां हर दिन एक परीक्षा है,
और हर उत्तर — पीड़ा की किसी नई परिभाषा में लिपटा है।
अब वो देवता नहीं रहा,
वो एक थका हुआ प्रश्न बन चुका है —
जो हर आत्मा के भीतर गूंजता है,
पर किसी की ज़ुबान पर नहीं आता।
बहुत दर्द है — हाँ, बहुत दर्द है
इस मांसल अस्तित्व में,
जहां हर पल खुद को जीवित रखने के लिए
थोड़ा-थोड़ा मरना पड़ता है।
अब वो चाहता है मौन —
ना स्वर्ग, ना पृथ्वी, ना देह, ना चेतना।
बस एक शून्य —
जहां वो न देवता हो, न मानव,
बस एक थक चुकी रूह…
जो अब किसी और जन्म का भार नहीं चाहती।
"देवता का सबसे बड़ा शाप यही था —
कि उसने मानव होने की चाह की।"
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