"नारी अब नारी नहीं रही..."
"नारी अब नारी नहीं रही..."
नारी अब नारी नहीं रही,
चूल्हा-चौका, दीप नहीं रही।
जो थामे थी घर की डोर,
अब बन बैठी है युद्ध की भोर।
साँझ ढले वो थककर आती,
फिर भी खाली थाली पाती।
ना आँखों में अपनापन दिखता,
ना शब्दों में कोमलता टिकता।
ममता की मूरत, कठोर हो गई,
संघर्षों में उसकी छवि खो गई।
जिसने कभी घर को मंदिर माना,
आज वही घर से बहार हो जाना।
पति का आदर, अब तर्क बन गया,
"बराबरी" का नारा गर्व बन गया।
पर अंदर ही अंदर टूट रही है,
छोटी-छोटी बातों में रूठ रही है।
क्या यही नारीवाद का सपना था?
क्या यही उसका अपना रास्ता था?
जिसके आँचल में था सुकून भरा,
अब वो आँचल ही कांटो से भरा।
माँ थी, बहन थी, प्रेम थी सदा,
अब वो भी बन गई सवालों की सदा।
खुद को मर्द दिखाने की होड़ में,
नारीत्व की शांति गई छोड़ने।
अधिकारों के नाम पर जो चिल्लाती है,
कभी खुद से ही नज़र चुराती है।
घर तो है, पर घरवाले कहाँ?
हर रिश्ते में अब खालीपन यहाँ।
"नारी, तू सशक्त बन — पर कठोर मत बन"
नारी, तू शक्ति है, तू तेज है,
पर तू सहानुभूति का संदेश है।
समानता चाहिए, यह सही बात है,
पर प्यार और ममता भी साथ है।
मत भूल अपनी कोमलता की ताक़त,
तेरे आँसू भी बनते हैं राहत।
तू न झुके, न डरे — यह तो ठीक है,
पर अपनी नारीत्व की सुगंध भी ठीक है।
♥️♥️
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