वो बोली — "जा रही हूँ मैं, भूल जाना मुझे...

वो बोली — "जा रही हूँ मैं, भूल जाना मुझे"
मैं मुस्कुरा तो दिया, पर दिल चीख उठा,
"इतना आसान नहीं होता... भूल जाना किसी को!"

पता नहीं, जब उसने मुझसे मुँह मोड़ा,
तो उसके दिल ने क्या महसूस किया होगा,
क्या वो भी टूटी होगी उतनी ही,
जितना मैं बिखर गया उस पल?

हम दोनों जानते थे —
फिर कभी नहीं मिल सकेंगे हम,
फिर भी आँखों में थी उम्मीद की लौ,
शायद वक़्त को कोई और मोड़ मिल जाए।

पर वक्त नहीं थमा,
ना वो लौ जली रही,
रह गया बस एक अधूरा अल्फाज़ —
"अगर मिलते तो कैसा होता?"

हर बीतता पल
उस बिछड़ने को और गहरा करता गया,
अब तो दर्द भी आदत बन चला है,
और यकीन भी हो चला है —
कि अब कभी नहीं होंगे हम एक।

वो अलविदा अब भी कानों में गूंजता है,
हर रोज़ उस सन्नाटे में
मैं खुद से लड़ता हूँ,
उसे भूलने की कोशिश में
हर रोज़ खुद को थोड़ा और खो देता हूँ।

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