“राजपूत की प्रतिज्ञा”

“राजपूत की प्रतिज्ञा”
(लेखक: रूपेश रंजन)

हड्डी, माँस, रक्त ले जाओ,
चीर दो तन का हर कण,
पर जो भूमि जहाँ खड़ा था,
वो ऊँचाई है मेरा मन।

ना वो झुका था कभी किसी से,
ना आज झुकेगा काल से,
माथा टेकूँ तो केवल,
मातृभूमि के भाल से।

राजपूत हूँ, रण में जन्मा,
मृत्यु को साथी माना है,
पीठ दिखाना पाप लगे,
शत्रु से आगे जाना है।

धधक रही है छाती में ज्वाला,
शौर्य नहीं शब्दों में बँधता,
जिस धरती ने दूध पिलाया,
उसके लिए लहू भी हँसता।

कट जाएँ हाथ, कटें ये चरण,
पर झुके नहीं सिंहों का गर्व,
चट्टानों पर खड़ा अकेला,
राजपूत बनता है पर्व।

तलवारें भले मोड़ दो मेरी,
पर दृष्टि नहीं झुकेगी,
जिस भूमि पर पाँव टिके हैं,
वो स्वाभिमान से ही बजेगी।

रण में कूदूँ तो विजयी बनूँ,
या फिर अमर गाथा लिखूँ,
धूप, धूल, रक्त और आँसू,
इनसे ही तो प्रतिज्ञा सिखूँ।

जला दो महल, लूट लो धन,
पर इज़्ज़त न छू पाओगे,
राजपूत की आन पे जिसने,
नज़र उठाई, पछताओगे।

सिर झुका नहीं माटी से पहले,
ना झुकेगा मृत्यु के द्वार,
वीर वही जो हार न माने,
बने साक्षी अम्बर-आकार।


समर्पित उन हर राजपूत वीरों को,
जिन्होंने मृत्यु को भी मुस्कराकर गले लगाया,
पर कभी अपने स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया।



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