शायरी: "आँखों का करार"



शायरी: "आँखों का करार"
—Rupesh Ranjan

क्या ही भरोसा करूँ इस जहाँ पे,
जब तुझे ही हमारा करार याद न रहा,
वो करार जो तेरी मेरी निगाहों के दरमियाँ था,
बिना लफ़्ज़ों के इकरार था,
रूह से रूह का इत्तेहाद था।

अब तू पूछती है —
"कौन हो तुम मेरे लिए?"
क्या नाम दूँ उस रिश्ते को
जिसमें अल्फ़ाज़ कभी ज़रूरी न थे?

किस हक़ से पुकारूँ तुझे —
जब तुझसे ही पहचान छिन गई,
तू खुद को भी भूल गई शायद,
तो मेरा होना क्या मायने रखेगा?

ये जो करार था हमारी निगाहों में,
वो सिर्फ़ दिल की जुबाँ समझती थी,
ये कोई जिस्मों का बाज़ार नहीं था,
जो सौदे में तोल लिया जाए।

मैंने तो तुझे खुदा समझा था,
तेरी हर ख़ामोशी में सुकून पाया था,
तेरे एक दीदार से
रातों की तन्हाई भी रोशन हो जाती थी।

अब जब तू ग़ैरों की तरह बात करती है,
तेरे लहजे में सवाल होते हैं,
तेरी नज़रों में अजनबीपन,
तेरे दिल में कोई और रह गया है शायद।

पर मैं आज भी वहीं ठहरा हूँ,
जहाँ तेरा नाम मेरी दुआओं का हिस्सा था,
जहाँ तेरी आँखों में बस करार ही नहीं —
मेरा पूरा वजूद बसा करता था।

दुनिया को क्या यक़ीन दिलाऊँ मैं?
जब तू ही मेरी सच्चाई से मुकर गई,
ये जो इश्क़ था —
वो लफ़्ज़ों में बयां नहीं होता,
वो तो रूह से रूह तक का सफ़र था।



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