कभी तो मिलेगा मुझे मेरा हक़...

कभी तो मिलेगा मुझे मेरा हक़
– रुपेश रंजन

छोड़ी नौकरी, था एक सपना,
थामे उम्मीदों का अपना अपना।
मगर किस्मत ने खेल रचाया,
हर मोड़ पे बस दर्द ही आया।

माँ-बाप की हालत बिगड़ी अचानक,
तब सपना लगा बहुत ही भटका।
न जा सका मैं शहर बड़े,
घर में ही खुद से लड़ता खड़े।

पढ़ा, लड़ा, खुद से जूझा,
हर रात आँसुओं से टूटा।
लिखित परीक्षा पास की मैंने,
मेडिकल ने फिर से रोका कहने।

आँखों ने साथ छोड़ दिया,
रोज़-रोज़ ये हाल बिगड़ गया।
चार नौकरियाँ छिन गई मुझसे,
सिर्फ़ इस नज़र की कमी से।

कई बार चुना गया मैं लिखित में,
पर इंटरव्यू की तारीख़ छूट गई किस्मत में।
कटऑफ़ से ऊपर नंबर था मेरा,
फिर भी नहीं मिला साथ सवेरा।

एक नौकरी की चिट्ठी आई,
पर विज्ञापन ही रद्द बताई।
हर बार पास होकर भी हारा,
कभी मेडिकल, कभी सवालों का मारा।

साल गुजरते गए चुपचाप,
आशा बनी रही बस एक जवाब।
मिल गई अब एक छोटी नौकरी,
बस ज़िंदगी चलती है थोड़ी थोड़ी।

लोग न जानें संघर्ष मेरा,
न देखें दर्द, न हौसला मेरा।
अब कोई नहीं करता यकीन,
पर मन में बाकी है एक तिनका उम्मीद।

ईश्वर पर अब और भरोसा है,
दिल को बस ये एहसासा है—
ज़िंदगी ने जो छीना सब,
कभी तो लौटाएगा रब।

कभी तो चमकेगा मेरा नाम,
कभी तो बदलेगा ये अंजाम।
अब भी कहता हूँ थककर हर बार—
मुझे भी मिलेगा मेरा अधिकार।


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