कितने पास थे,कितने दूर हो गए

कितने पास थे,कितने दूर हो गए,
ज़िंदगी में कभी थे हक़ीक़त,अब ख़्वाब बन गए।

इतने पास कि मेरी साँसों में उतरते थे,
इतने दूर कि अब लम्हों में भी न मिलते हो।

कभी धड़कनों की धुन थे तुम्हारे नाम से,
आज तन्हाई की गूँज में खो गए हो।

कभी साथ चलने का वादा था निगाहों में,
अब रह गया है बस सफ़र का सन्नाटा।

मैंने चाहा था तुम्हें अपने अक्स की तरह,
तुम बिखर गए आईने की तरह।

समय ने कितनी बेरहमियों से हमें बाँटा,
पास लाकर फिर दूरियों में डुबो डाला।

अब न शिकायत है, न कोई इल्ज़ाम,
सिर्फ़ यादों का दरिया है और ख़ामोश किनारे।

तुम चाहो तो ख़्वाबों में लौट आओ,
मैं नींद से न जागूँगा तुम्हें खोने के डर से।

इतना पास कि मेरी रगों में बहो,
इतना दूर कि मेरी पुकार तक न सुनो।

कभी ज़िंदगी थे, अब तसव्वुर हो गए,
कभी सच थे, अब अफ़साना हो गए।

रूपेश रंजन

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