कविता – मन की उलझनें...
कविता – मन की उलझनें
ऐसा क्यों होता है मन उदास,
न कोई कारण, न कोई विशेष आस।
ना कहीं जाने का मन करता है,
ना ही किसी से बोलने का मन भरता है।
मुस्कान भी बोझ-सी लगती है,
हर खुशी जैसे दूर-सी लगती है।
बस चुपचाप अकेले बैठना अच्छा लगता है,
भीड़ में भी एक सन्नाटा गहरा लगता है।
नींद पास आकर भी दूर चली जाती है,
पंखे की घुमती आवाज ही साथी बन जाती है।
खामोशी का ये कैसा आलम है,
हर लम्हा जैसे बोझिल सा मौसम है।
जिंदगी में अब और क्या चाहिए,
बस गुज़र जाए बिना कुछ कहे यही तो चाहिए।
बचपन के सपने कहीं खो गए,
उमंगों के दीप हवा में बुझ गए।
आँसू बिना कहे चले आते हैं,
दिल की पीड़ा शब्दों में नहीं समाते हैं।
घाव इतने गहरे कि मरहम भी हार गया,
दर्द का दरिया सीने में उतरकर खामोश हो गया।
मन चीखना चाहता है मगर आवाज़ नहीं निकलती,
हर चाहत अपने ही डर से टकराकर बिखरती।
सवाल उठता है क्यों ऐसा होता है?
दिल बार-बार क्यों रोता है?
कब ठीक होगा यह टूटा हुआ मन?
कब लौटेगी जीवन में थोड़ी-सी धुन?
इसी इंतज़ार में दिन ढल जाते हैं,
रातें बस तन्हाई में बदल जाते हैं।
लोग पास होकर भी दूर नज़र आते हैं,
हज़ारों के बीच भी अकेले लग जाते हैं।
मन एक उपद्रव, एक तूफान-सा है,
जो कहीं नहीं है फिर भी हर जगह सा है।
चुप्पियों की ये भाषा कोई समझे कहाँ,
हर मुस्कान के पीछे छुपा दर्द देखे कहाँ।
रिश्तों की भीड़ में अपनापन गुम है,
हर जुबां पर मिठास, मगर दिल में सूनापन गुम है।
सांसें चल रही हैं पर जीवन ठहरा है,
हर पल जैसे कोई बोझ सा गहरा है।
समझ नहीं आता क्या चाह रहा दिल,
शायद बस चैन, बस थोड़ा सा सुकून दिल।
दिन को रात बनाने की आदत हो चली,
खुद से बचने की चाहत गहरी हो चली।
आईना देखो तो चेहरा अजनबी लगता है,
अपनी ही परछाईं भी परायी लगती है।
मन कहता है भाग चलो कहीं,
पर पैरों के नीचे ज़मीन ही नहीं।
वक्त से लड़ना भी अब थका देता है,
हर उम्मीद अधूरी सी रह जाती है।
लोग पूछते हैं क्यों चुप रहते हो,
क्या कहें जब सब खुद से ही कहते हो।
मन का जंगल और घना होता जा रहा,
हर राह पर धुंध छा रहा।
काश कोई समझ पाता इस दिल की खामोशी,
काश कोई पढ़ पाता आँसुओं की ये रफ़्तार धीमी-धीमी।
हर दिन गुजरता है इंतज़ार में,
कभी सुकून मिलेगा इस ख़याल में।
पर जीवन का सच यही सिखाता है,
दर्द को जीना भी जीना कहलाता है।
कभी-कभी मन कह उठता है जोर से,
बस अब और नहीं चाहिए किसी ठौर से।
पर फिर भी सांसें चलती रहती हैं,
उम्मीद की डोर हल्की-सी बंधी रहती है।
यही डोर हमें कल तक ले जाती है,
अधूरी हंसी और अधूरे सपनों में उलझाती है।
शायद कल बेहतर होगा, यही सोचकर जीते हैं,
मन की पीड़ा संग जीवन बिताते हैं।
कभी लगता है सब समाप्त कर दूं,
फिर सोचता हूं – क्या सच में मैं हार दूं?
नहीं… शायद अभी बाकी है कहानी,
शायद अभी बचेगी थोड़ी-सी जवानी।
मन चाहे जितना उपद्रव करे,
जीवन तो चलता है, चाहे रोए या हंसे।
इसलिए जीना है दर्द के साथ भी,
आंसुओं की धारा और रात की रात भी।
कभी तो मुस्कुराएगा ये दिल फिर से,
कभी तो जीवन खिलेगा नयी किरन से।
तब तक इंतज़ार करना ही है,
इस यात्रा को पूरा करना ही है।
रूपेश रंजन
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