हम सच में नंगे हैं...
हम सच में नंगे हैं
जब भी किसी के साथ गलत होता है,
हम चुप रह जाते हैं।
यही हमारी सबसे बड़ी हार है,
यही हमारी असलियत है।
हम सच में नंगे और बेशर्म हैं,
पर झूठे कपड़े पहनकर
अपनी सच्चाई छुपाते हैं।
गलियों में कोई बच्ची रोती है,
भीड़ खड़ी देखती है,
पर कोई आगे नहीं बढ़ता।
हमारी आँखें अपराध देखती हैं,
पर होंठ बंद रहते हैं।
हम चुप हैं,
क्योंकि हमें डर लगता है,
हम चुप हैं,
क्योंकि हमें फर्क ही नहीं पड़ता।
यह चुप्पी ही असली अपराध है।
भेड़िए खुलेआम घूमते हैं,
पर हम परदे डालकर सो जाते हैं।
हम सोचते हैं—
अगर हमारी बेटी नहीं,
तो क्यों बोलें?
अगर हमारा घर सुरक्षित है,
तो क्यों उठें?
पर याद रखो,
आज अगर चुप हो,
तो कल तुम्हारी बारी भी आएगी।
अपराध किसी का इंतज़ार नहीं करता,
वह हर घर की चौखट पर दस्तक देता है।
हम कहते हैं—
समाज बदलना चाहिए।
पर समाज कौन है?
हम ही तो हैं।
और जब हम ही चुप हैं,
तो समाज की आवाज़ कहाँ से आएगी?
हम सच में नंगे हैं,
क्योंकि हमारा विवेक मर चुका है।
हम बेशर्म हैं,
क्योंकि हमें शर्म नहीं आती
दूसरों की चीत्कार सुनकर भी।
हम नकली कपड़े पहनते हैं—
धर्म के, नैतिकता के,
सभ्यता के, संस्कार के।
पर ये सब चिथड़े हैं,
जो हमारी आत्मा की गंदगी छुपा नहीं सकते।
गलत देखकर भी चुप रह जाना
सबसे बड़ा अन्याय है।
क्योंकि अपराधी से बड़ा अपराधी
वह है जो अपराध देखकर
मुँह फेर लेता है।
हमारे मंदिर, हमारी मस्जिदें,
हमारे पाठ, हमारे प्रवचन,
सब खोखले हैं—
जब तक हमारी आत्मा में साहस नहीं,
जब तक हम अन्याय के खिलाफ खड़े नहीं होते।
हम अपने बच्चों को पढ़ाते हैं—
सत्य बोलो, ईमानदार बनो।
पर जब सच बोलने का समय आता है,
हम खुद झूठ का चोला ओढ़ लेते हैं।
हम उन्हें कहते हैं—
बुराई के खिलाफ लड़ो।
पर जब हमारी बारी आती है,
हम बुराई से समझौता कर लेते हैं।
ये कैसी विरासत है?
ये कैसी सभ्यता है?
जहाँ अन्याय को देखकर भी
तालियाँ बजती हैं,
पर किसी की आवाज़ नहीं उठती।
हमारे नकली कपड़े,
हमारी बनावटी इज़्ज़त,
हमारी झूठी शान—
ये सब ढोंग है।
असली हम तो वही हैं—
नंगे, बेशर्म और मौन।
पर अब समय है,
इस चुप्पी को तोड़ने का।
अब समय है,
झूठे कपड़े उतार फेंकने का।
अब समय है,
सच के आईने में खुद को देखने का।
क्योंकि अगर हम ऐसे ही रहे,
तो अपराध कभी नहीं रुकेगा।
भेड़िए कभी नहीं हारेंगे।
और मासूमियत
हमेशा चीखती रहेगी।
हम सच में नंगे हैं,
पर अब हमें तय करना होगा—
क्या हम अपनी नंगई छुपाते रहेंगे,
या सच की धूप में
खुद को नंगा कर
नए कपड़े बुनेंगे—
हिम्मत के,
साहस के,
और न्याय के।
अगर हम खड़े हो जाएँ,
तो अपराधी काँपेंगे।
अगर हम बोल पड़ें,
तो अत्याचारियों की जुबान बंद होगी।
अगर हम एक हों,
तो कोई भी बच्ची,
कोई भी औरत,
कोई भी गरीब,
अकेला नहीं होगा।
इसलिए उठो।
चुप्पी तोड़ो।
सच स्वीकारो।
और नए कपड़े पहनो—
जिनमें कोई झूठ न हो,
जिनमें कोई ढोंग न हो।
याद रखो—
जब भी किसी के साथ गलत होता है,
और हम चुप रह जाते हैं,
तो अपराधी जीत जाता है।
और हम हार जाते हैं।
अब और नहीं।
अब समय है बदलाव का।
अब समय है सच के साथ खड़े होने का।
हाँ, हम सच में नंगे हैं।
पर अब हमें बेशर्म नहीं रहना है।
रूपेश रंजन
Comments
Post a Comment