अलविदा



अलविदा

जब भी काग़ज़ पर कलम रखी,
अलविदा लिखने के लिए पहला अक्षर लिखा,
हाथ काँप उठे, दिल सिहर गया,
जैसे किसी ने मेरे दिल पर बोझ रख दिया।

‘अ’ लिखते ही लगा जैसे अकेलापन उतर आया,
हर बार उसे बदलकर ‘आ’ कर दिया,
फिर पूरा वाक्य अपने आप निकल आया,
“आ जाओ…” बस यही पुकार बन गया।

चाहे कितनी बार अलविदा कहने की ठानी हो,
शब्दों ने साथ देने से इंकार कर दिया,
हर लफ़्ज़ ने ज़िद की कि दूरी मत माँगो,
हर वाक्य ने कहा कि उसे वापस बुलाओ।

मैंने सोचा था ताक़त से लिख दूँगा विदाई,
पर कलम बोझ से दबकर ठहर गई,
स्याही बिखरकर भी पुकारने लगी,
“मत लिखो जुदाई, बस उसका नाम लिखो।”

कितनी बार मन ने कहा—अब छोड़ दो,
कितनी बार हालात ने मजबूर किया,
पर दिल हर बार हार मान गया,
क्योंकि मोहब्बत ने कभी अलविदा लिखना सीखा ही नहीं।

तुम्हारे बिना लिखी हर पंक्ति अधूरी लगी,
जैसे कविता से रूह छिन गई हो,
जैसे साँस से हवा जुदा कर दी गई हो,
जैसे चाँद से चाँदनी छीन ली गई हो।

अलविदा का मतलब समझना चाहता था,
पर दिल हर बार नए मायने गढ़ लेता,
कभी उसे इंतज़ार बना देता,
कभी उसे पुकार बना देता।

मैं हर बार सोचता था कि अब आख़िरी बार है,
अब ये शब्द ज़ुबान से निकल ही जाएंगे,
पर होंठ सिले रह गए, आँखें भीग गईं,
और दिल ने कहा—“नहीं, ये आख़िरी नहीं हो सकता।”

तुम्हारी यादें हर विदाई को नकार देतीं,
तुम्हारी मुस्कान हर दूरी को मिटा देती,
तुम्हारा नाम मेरे होंठों पर आते ही,
हर अलविदा, हर विदाई हार जाती।

मैं चाहता था एक साफ़ अंत,
पर मोहब्बत अधूरी रहकर भी पूरी लगती है,
रिश्ते खत्म होकर भी ज़िंदा रहते हैं,
और अलविदा कहकर भी अलविदा नहीं होती।

हर बार जो चिट्ठी लिखी, अधूरी रह गई,
हर बार जो ख़त्म किया, मिट गया,
हर बार जो दूरी चाही, न हो सकी,
हर बार जो चाहा छोड़ना, तुम और पास आ गए।

आज तक मैं अलविदा नहीं लिख पाया,
क्योंकि ‘अ’ मेरे हाथ से निकलते ही ‘आ’ बन जाता है,
और मेरी हर विदाई एक दुआ में बदल जाती है,
“आ जाओ…” यही आख़िरी सच्चाई बन जाती है।



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