उठो, समय तुम्हें पुकार रहा है...
उठो, समय तुम्हें पुकार रहा है
रगों में दहकता लावा बह रहा है
आँखों में वज्र सा संकल्प जगाओ
पत्थर तक को आज पिघला जाओ
डर की दीवारों को ध्वस्त कर दो
अपने भीतर का सिंह प्रचंड कर दो
घावों को ताज की तरह सजाओ
पीड़ा को विजय का नगाड़ा बनाओ
पसीना तुम्हारा अभिषेक बनेगी
परिश्रम ही भाग्य की लिखावट बनेगी
तूफानों से हाथ मिलाओ
बिजली को मुट्ठी में लाओ
शंका की जंजीरों को तोड़ो
विश्वास की मशालें जोड़ो
जो राह जली है, उसी पर चलो
राख से अपना उजाला निकालो
लक्ष्य को दृष्टि का केन्द्र बनाओ
भय को पांव तले धूल बनाओ
आज का कदम ही इतिहास लिखेगा
दृढ़ निश्चय ही मार्ग दिखेगा
हृदय में गर्जन उठने दो
नाड़ियों में पर्वत घुलने दो
असफलता को सीढ़ी मानो
गिरकर भी ऊँचा उठ जाना जानो
अपमान को कवच बना लो
आलोचना को शस्त्र बना लो
आवाज़ बुलंद कर नभ को चीर दो
संकल्प के वज्र से बादल चीर दो
जो ठहरे हुए हैं, उन्हें जगा दो
जो सोए हुए हैं, उन्हें बता दो
कि शौर्य से बड़ा कोई धर्म नहीं
कि श्रम से बड़ा कोई कर्म नहीं
मिट्टी की सौंधी गंध में शपथ लो
जननी धरती से आज प्रतिज्ञा लो
हर आँसू अब अंगार बने
हर धड़कन हुंकार बने
सीमा रेखाएँ पांवों से मिटाओ
असंभव शब्द को आज जलाओ
परछाइयों से आँख मिलाओ
भीतर की रौशनी फैलाओ
निराशा के किले गिर जाने दो
आशा के ध्वज लहराने दो
थकान को कंधों से उतार फेंको
सपनों को यथार्थ में उतार फेंको
कदम ताल रणभेरी बजने दो
साहस की धारा बहने दो
साथियों के हाथों में हाथ दो
सत्य के लिए संपूर्ण रात दो
संदेह के राक्षस को हराओ
आत्मबल का शंख बजाओ
कल का भरोसा छोड़ आज बनो
लौह इरादों का साज़ बनो
जब तक शिखर तक साँस बचे
कदम तुम्हारे थमने न दें
साँस चलती रहे तब तक डटे रहो
जीत के सूरज को खुद रचे रहो
स्वयं से स्वयं का प्रण निभाओ
धधकते मन से जग रोशन बनाओ
आज ही अपने भाग्य को गढ़ दो
और अपनी विजय का उद्घोष कर दो
रुपेश रंजन
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