ज़ंजीर-ए-ग़ुलामी को चूर-चूर कर दें।

सद्रंग गुलशन में खुशबुए हुर्रियत बिखेरें,
ज़ंजीर-ए-ग़ुलामी को चूर-चूर कर दें।

सहर-ए-उम्मीद में परचम-ए-आज़ादी लहराएँ,
ख़्वाब-ए-जां को ताबीर-ए-हक़ीक़त कर दें।

हर ख़ाक-ए-वतन पर नूर-ए-हक़ीक़त बरसाएँ,
तारों की तरह चमकता सबूत-ए-हिम्मत कर दें।

आवाज़-ए-हक़ में गूँजें सदाए-जुरअत,
दुनिया को इबारत-ए-हुर्रियत कर दें।



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ज़ुल्म के साये में ख़ामोश रहूँ ये मुमकिन नहीं,
हक़ की राह पे चलूँ, चाहे सफ़र आसान नहीं।

सच के अल्फ़ाज़ लबों से निकलते रहेंगे,
ख़ौफ़ चाहे कितना भी हो, कदम बढ़ते रहेंगे।

गर जान भी जाये, पर वफ़ा से मुकरूँगा नहीं,
ज़ंजीरें तोड़ दूँगा, मगर सर झुकाऊँगा नहीं।

जुल्मत में एक चिराग़ बनकर जलना है मुझे,
सच के सफ़र में आख़िर तक चलना है मुझे।



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मुल्क से अज़ीम कोई दस्तूर नहीं,
मिट्टी से नफ़ीस कोई ग़ुरूर नहीं।

ख़ाक़े-वतन में मोहब्बत का जौहर समाया,
हर ज़र्रे ने वफ़ा का परचम लहराया।

सदक़े में जान भी दे दें तो कम है,
इस हुस्न-ए-चमन का यही क़दम है।

रग़-रग़ में मीरास-ए-ग़ैरत धड़कती है,
मौजों में भी ख़ुशबू-ए-सरज़मीं महकती है।

इल्तिज़ा है, ऐ ख़ुदा! इसे आबाद रख,
इस ख़ाक़ को हर ग़म से आज़ाद रख।





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