तुझे पा रहा हूँ, या तुझे खो रहा हूँ....
तुझे पा रहा हूँ,
या तुझे खो रहा हूँ,
कुछ समझ नहीं आ रहा।
कभी तू मिल जाती है,
कभी तू चली भी जाती है।
तू बता, किसे इल्ज़ाम दूँ –
ख़ुदा को या तेरी खामोशी को?
क्या तू मुझसे मोहब्बत करती है,
या मुझसे ख़िलवार कर रही है?
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तुझे पा रहा हूँ या तुझे खो रहा हूँ,
कुछ समझ नहीं आता, किस ओर जा रहा हूँ।
कभी तू मिल जाती है ख़्वाबों की तरह,
कभी रूह से फिसल जाती है सराबों की तरह।
तू बता, किसे इल्ज़ाम मैं दूँ,
ख़ुदा को या तेरे जज़्बातों के जुनूँ को।
क्या तू मुझसे सच्ची मोहब्बत करती है,
या मेरे दिल से खेलती, ख़िल्वार करती है?
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जिस दिन मिलूँगा, सूद समेत वापिस लूँगा,
ये जो तू तड़पा रही है, अच्छा नहीं कर रही है।
इतने दिनों की बेचैनी, इतने लम्हों का इंतज़ार,
ये तड़प की आग, बन गई है इश्क़ का इकरार।
दिल के हर कोने में तेरी यादों का मंजर है,
रूह तक जल रही है, जैसे कोई अंदर खंजर है।
तेरी ख़ामोशी ने दर्द को और गहरा कर दिया,
हर सांस ने तुझे चाहने का सबूत दे दिया।
जिस पल तू मेरे सामने होगी, फ़ैसला वहीं होगा,
इश्क़ की रक़म भी पूरी और हिसाब वहीं होगा।
मोहब्बत का ये क़र्ज़ मैं मुस्कान में चुका दूँगा,
तेरे आँचल में सुकून का जहां बसा दूँगा।
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कितनी मुश्किल है ये दास्तान-ए-दिल,
कि मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ ग़ाज़िल,
और तुम भी रूह की गहराइयों से चाहती हो,
फिर भी इनकार के परदे में छुप जाती हो।
सोचो मेरी हालत, क्या गुज़र रही होगी,
हर सांस में तेरी तसवीर उतर रही होगी,
मैं चाहूँ कि इज़हार-ए-इश्क करूँ बेहिचक,
पर तेरी ख़ामोशी देती है दर्द का सबक।
दिल कहता है मोहब्बत को रूकने न दूँ,
तुझे अपनी बाहों में रोकने न दूँ,
मगर तेरा संकोच बनता है दीवार-ए-हिज्र,
जो तोड़ न पाए मेरी चाहत का सिज़्र।
फिर भी ख़्वाबों में तुझको चाहूँ,
तेरे हर लम्हे को अपनी रूह में समाऊँ,
मोहब्बत की ये जंग जारी रहेगी,
जब तक तेरे होंठों पर इकरार न लिखी होगी।
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मौत तो हक़ीक़त है, इनकार किसका करें,
आज नहीं तो कल, सफ़र सबको तय करना पड़े।
फिर क्यों ये तफ़क्कुर, ये सोच का बोझ ढोएँ,
वजह-ए-ज़िन्दगी खोजें, हर लम्हा रोशन होएँ।
ग़म की सियाही में भी रंग भरना आना चाहिए,
दिल को तस्कीन देने का हुनर पाना चाहिए।
हसरतों की महफ़िल में रौशनी जलाते रहें,
ख़्वाबों की कश्ती में किनारे पाते रहें।
रूपेश रंजन कहता है, जीना फ़न है ख़ास,
वजह मिले तो हर साँस बने इबादत का अहसास।
रूपेश रंजन
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इस तन्हा शब में तुझ बिन ख़्वाब बुनता हूँ,
तेरी यादों की रौशनी में ख़ुद को चुनता हूँ।
क्या नींद इतनी लाज़िम है कि मुझसे दूर हो जाएँ,
जब रातेें मोहब्बत की सदा में सरूर हो जाएँ।
तन्हाई के साज़ पर दिल ग़ज़ल लिखता है,
तेरी ख़ामोशी को भी सहर समझता है।
मेरी तड़प को शायद तूने महसूस नहीं किया,
या नींद ने तेरी रूह को महकूस नहीं किया।
गर एक पल ठहर कर मेरी आँखों में झाँक लेती,
तू जानती मैं ख़्वाबों में तुझसे बातें करता हूँ।
रूपेश रंजन
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