कपड़ों से क्या ढकूँगा ख़ुद को,

कपड़ों से क्या ढकूँगा ख़ुद को,
मैं तो नंगा हूँ।
तुम मुझे क्या देखोगे,
मेरे कपड़े तो रोज़ बदलते हैं।

नंगापन तन का नहीं,
मन का आईना है,
जहाँ झूठ के पर्दे गिरते हैं
और सच उजागर खड़ा होता है।

लिबास बदलने से पहचान नहीं बदलती,
चेहरा सजाने से आत्मा नहीं सँवरती।
सच्चाई वही है,
जो भीतर की ख़ामोशी में गूँजती है।

कभी लोग कपड़ों से आँकते हैं,
तो कभी रंगों से पहचानते हैं,
पर असली चेहरा तो वो है
जो रात की तन्हाई में
ख़ुद से बातें करता है।

क्या फायदा उस शरीर को ढकने का
जिसके भीतर की सोच उघड़ी हो,
क्या अर्थ है रोज़ नए वस्त्र पहनने का
जब आत्मा का परिधान ही मैले हो।

नंगा हूँ मैं अपनी सच्चाई में,
बिना आडंबर, बिना दिखावे के।
और यही नग्नता
मेरे अस्तित्व की सबसे बड़ी ताक़त है।

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मुझे कपड़े अच्छे नहीं लगते,
मुझे नंगा होना है।
तुम देख सको मुझे,
ऐसा दिखना है मुझे।

नंगा — तन से नहीं,
बल्कि मन की परतों से।
जहाँ छल और मुखौटे उतर जाएँ,
और बचे सिर्फ़ सच्चाई का चेहरा।

कपड़े तो ढकते हैं सिर्फ़ शरीर को,
पर आत्मा का वस्त्र तो पारदर्शी होता है।
मैं चाहता हूँ कि तुम देखो मुझे
जैसा मैं हूँ —
बिना आवरण, बिना दिखावे,
सिर्फ़ सच्चाई के रूप में।

मुझे छुपाना नहीं आता,
न अपनी कमजोरी, न अपनी चाहत।
जो हूँ, वही हूँ —
और वही दिखना है मुझे।

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