मुझे कविताओं में पिघला दो, बहते हुए शब्दों में...

मुझे कविताओं में पिघला दो,

बहते हुए शब्दों में,

ठहरते, थिरकते,

नाचते, कूदते-फाँदते शब्दों में।


बस शब्द ही शब्द—

ऐसे शब्द,

जो मानव की प्रकृति को

संपूर्ण रूप से परिभाषित कर सकें।


शब्द जो कहें—

दुःख, दर्द और अवसाद की गहराई,

प्रेम की मधुरता,

ख़ुशी, आनंद और संतोष की उजली ध्वनि।


शब्द जो मानव को समझा सकें

संसार की गतियाँ,

जीवन से मृत्यु तक की यात्रा,

आदि से अंत तक का सत्य।


और भी बहुत कुछ…

जो न बोला जा सके सीधे,

पर जिसे कविताएँ अपने भीतर

सहेज लेती हैं मौन में।


रूपेश रंजन

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