ले चलो न फिर वहीं, बस तुम और मैं...
ले चलो न फिर वहीं,
बस तुम और मैं...
और कुछ नहीं...
ख़ामोश रात,
ग़ुमसुम हवाएँ,
तारों की महफ़िल में चाँदनी का ग़ज़ब का जादू...
कुछ अनकही बातें,
जो लबों तक आकर भी न कह पाई हों,
सिर्फ़ निगाहों की ज़ुबाँ में उतर आई हों...
और उस पल में
दुनिया की हर हलचल थम जाए,
बस तुम्हारी साँसों की आहट सुनाई दे...
और चाहिए भी क्या,
गर इस आलम में मेरी रूह निकल जाए,
तो कोई शिकवा न रहे,
खुले आसमान के नीचे
तुम्हारे हाथ को थामे
मैं हमेशा के लिए ठहर जाऊँ...
— रूपेश रंजन
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