ख़ुद से जंग...

 ख़ुद से जंग


मैं जहाँ से क्यों जंग करूँ,

जब मेरी ज़ात में ही हज़ार ख़ामियाँ पनाह लिए बैठी हों,

हर साँस में एक आईना है

जो मेरे अपने ही अक्स को बेनक़ाब करता है।


मेरा अस्ल इनक़लाब

बाहरी दुनिया के ख़िलाफ़ नहीं,

बल्कि मेरे ही दिल के

जुर्म और गुनाह के सायों के ख़िलाफ़ बरपा है।


मैं अपने क़लम को

किसी और के ख़ूँ से क्यों रंगीन करूँ,

जबकि मेरे लफ़्ज़

मेरी रूह की तहरीर के मोहताज हैं।


रंग दूँ तो क्यों न

उसको सचाई और इंसानियत के नूर से,

फ़ना कर दूँ अपने अहं को

और लिखूँ हक़ की ख़ुशबू में डूबी हुई नज़्में।


मैं क्यों दुनिया के नक़्श-ए-क़दम बदलूँ,

जब मेरी अपनी राहें

गुमराही और अंधेरे से भरी हों।

मुझे चाहिए

अपने अंदर के तुफ़ान को क़ाबू करना,

अपने जज़्बात के चाक को सीना,

अपने नफ़्स के साए को रौशन करना।


क़लम मेरा हथियार है

मगर इसका नश्तर

सिर्फ़ मेरे ही दिल को चीरे,

मेरी रूह को ताज़ा करे,

मेरे लफ़्ज़ मेरे ही जख़्मों का मरहम बन जाएँ।


मैं अपनी नफ़्सानी लड़ाई जीतूँ,

फिर दुनिया की बात करूँ।

क्योंकि अस्ल इनक़लाब

ख़ुद की फ़तह से शुरू होता है

और वहीं से एक नया आलम बनता है।

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