मुझे ऊँचाइयों की चमक नहीं चाहिए...

मुझे ऊँचाइयों की चमक नहीं चाहिए,
मुझे धरती की नमी चाहिए।
मुझे बड़ा नहीं बनना,
बस साधारण रहना है —
जैसे मिट्टी में घुला बीज,
जैसे नदी में बहती बूंद,
जिसे कोई नाम न दे,
जिसे कोई ऊँचाई न मापे।

मैं दुर्गा पूजा के मेले में जाना चाहता हूँ —
न किसी विशेष आसन पर,
न किसी रथ में बैठकर,
बल्कि पैदल, भीड़ के संग,
ध्वनियों, दीपों और धूल में घुलकर,
उस सामूहिक आस्था की लहर में बहकर।

मैं जीवन को यूँ ही जीना चाहता हूँ —
हवा की तरह मुक्त,
गंगा की तरह निर्मल,
भीड़ के रंगों में विलीन,
जैसे भिक्षु अपनी चादर में लिपटा
और साधना में तल्लीन।

मुझे किसी महिमा की नहीं
बस साक्षीभाव की इच्छा है;
मुझे कोई पहचान नहीं
बस आत्मा की उपस्थिति चाहिए।

मेरा जीवन ऐसा हो
जहाँ साधारणता ही साधना बने,
जहाँ हर श्वास एक मंत्र हो,
जहाँ हर कदम ध्यान में हो।

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