नज़्म – "मैं फिर भी लिखूँगा"
नज़्म – "मैं फिर भी लिखूँगा"
क्या ही मरूँगा मैं...
मौत से डरने वालों में नहीं हूँ मैं।
मैं रोज़ जीता हूँ,
रोज़ टूटता हूँ,
और हर रोज़
अपने टूटे हुए टुकड़ों से
एक नई कविता गढ़ता हूँ।
मैं सोचता हूँ,
और सोचता ही रहूँगा।
वो जाने या न जाने,
एक दिन मेरी ख़ामोशी भी
उससे सवाल करेगी।
मैं बोलूँ या न बोलूँ,
लिखूँ या न लिखूँ,
मेरी साँसों में उसका नाम
सदा गूंजता रहेगा।
तू जा,
हाँ — चली जा...
मेरे रास्तों से,
मेरे ख्वाबों से,
मेरी दुआओं से।
पर मेरे लफ़्ज़ों से नहीं,
क्योंकि वहाँ तेरा नाम
हमेशा ज़िंदा रहेगा।
पहले तुझसे मिलने पर लिखता था,
तेरे स्पर्श की ख़ुशबू पर,
तेरे हँसने की धुन पर।
अब तुझसे बिछड़ने पर लिखूँगा,
तेरी ख़ामोशी की गूँज पर,
तेरे जाने के दर्द पर।
मेरी कलम तेरे ग़म को
स्याही बना देगी,
और हर शब्द तेरे नाम से
इत्र की तरह महकेगा।
तू चाहे हज़ार दूर चली जा,
मेरे लफ़्ज़ तुझे ढूंढ निकालेंगे।
किसी तन्हा शाम में
तेरे कानों में आहिस्ता फुसफुसाएँगे —
"देख, मैं आज भी लिख रहा हूँ...
तेरे लिए ही लिख रहा हूँ,
तुझसे जुदा होकर भी
तुझे ही जी रहा हूँ।"
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