माँ आई हैं

माँ आई हैं... 

माँ आई हैं, आकाश में अलौकिक प्रकाश छाया है,
हर द्वार, हर आँगन में मंगल दीपक जलाया है।

ढोल-नगाड़ों की गूँज से वातावरण थिरक रहा,
भक्ति का सागर उमड़कर हर हृदय में बरस रहा।

कण-कण में शक्ति का अनुभव हो चला है,
जगदंबा का दरबार सुगंध से महका है।

आरती की थाली में दीपक जगमगाते हैं,
फूलों की वर्षा से भक्त पथ सजाते हैं।

माँ आई हैं, करुणा के सागर से लहर लेकर,
भटके जीवन को दिशा देने उतर आईं फिर।

नवपल्लव-सा हर मन मुस्कान खिलाने लगा,
माँ की छवि से अंधकार भाग जाने लगा।

पहली रात शैलपुत्री की ज्योति जलती है,
आत्मा में शांति की मधुर सरिता बहती है।

दूसरी रात ब्रह्मचारिणी का तेज सँवारता है,
सत्य-साधना का पथ जग में उभारता है।

तीसरी रात चंद्रघंटा की ध्वनि सुनाई देती है,
धैर्य और संतुलन की वाणी सिखाती है।

चौथी रात कूष्मांडा हँसी से ब्रह्मांड बनाती हैं,
अज्ञान के तम में ज्ञान-ज्योति जगाती हैं।

पाँचवीं रात स्कंदमाता का वरदान मिलता है,
संतान और संस्कार का आशीष खिलता है।

छठी रात कात्यायनी का बल दिखलाती है,
असत्य और अधर्म को धरती से मिटाती है।

सातवीं रात कालरात्रि का रौद्र रूप छा जाता है,
भय का तमस मिटाकर साहस जगाता है।

आठवीं रात महागौरी का सौंदर्य झिलमिलाता है,
निर्मल भक्ति से मन पावन बन जाता है।

नवीं रात सिद्धिदात्री हर इच्छा पूरी करती हैं,
भक्तों की तपस्या का अमृत वचन भरती हैं।

माँ आई हैं, इन नौ रूपों में वरदान लिए,
भक्तों के जीवन में मंगल की पहचान लिए।

कुमकुम, चावल और नारियल से घट सजता है,
हर घर में माँ का पवित्र दरबार बसता है।

भक्त नवरात्रि में उपवास से तन-मन साधते हैं,
आत्मा को निर्मल कर माँ की शरण पाते हैं।

सिंहवाहिनी माँ का वैभव अनुपम है,
हर हृदय में उनका प्रकाश सतत है।

बच्चों की हँसी में माँ की कृपा चमकती है,
ग़रीब के आँसू में भी आशा झलकती है।

विजयादशमी का पर्व सिखाता यही है,
कि असत्य का साम्राज्य स्थायी नहीं है।

रावण चाहे कितना ही अहंकार बढ़ाए,
राम के सत्य-बाण से वह धराशायी हो जाए।

माँ आई हैं, दया और न्याय का पाठ पढ़ाने,
भटके जनों को सही राह दिखाने।

भक्ति का दीप जलाओ, भीतर का तम हर लो,
माँ की कृपा से अपने जीवन को सुंदर कर लो।

आओ संगठित हों, माँ की आराधना गाएँ,
सत्य, साहस और प्रेम का दीप जगाएँ।

धरती पर शांति हो, मानवता का परचम लहराए,
माँ के आशीष से हर मन मुस्काए।

रूपेश रंजन...

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