मैं नहीं समझ पाऊँगा महादेवी का दर्द..

मैं नहीं समझ पाऊँगा महादेवी का दर्द
(रूपेश रंजन)

मैं नहीं समझ पाऊँगा
महादेवी का दर्द —
वह दर्द,
जो चाँदनी में शीतल भी था,
और गहन रात्रि में अग्नि-सा भी।

उसकी आँखों में
नीलम-सा आकाश रोता था,
उसकी साँसों में
कस्तूरी-सी करुणा झरती थी,
उसके शब्दों में
गिरते पत्तों की पीली ध्वनि,
और एक वासंती हवा
सदैव बही रहती थी।

उसने अपने अश्रु
गंगा में नहीं बहाए —
उसने उन्हें
कागज़ की सूखी धरती में बोया,
जहाँ वे जन्मे
करुणा के नीलकमल,
आत्मा की गहराई के शंख।

वह पीड़ा
केवल स्त्री की पीड़ा नहीं थी,
वह पूरी सृष्टि का बंधन थी,
जिसे वह अपने शब्दों से
कातर कर देती थी।

मैं देखता हूँ
उसके भीतर झरते वन के पत्ते,
टूटते तारे,
अनकहे गीत,
और हर मौन में
एक गूढ़ प्रार्थना
जो धरती को आकाश से जोड़ती है।

मैं नहीं समझ पाऊँगा
वह लहर,
जो उसकी नसों में नदियों-सी बहती थी,
वह स्पंदन
जो उसके गीतों को
आकाश में उड़ा देता था।

फिर भी मैं झुकता हूँ
उसकी धरा पर,
जहाँ हर शब्द एक दीपक है,
हर पंक्ति एक संन्यास,
और हर गीत एक करुणागाथा।

महादेवी,
तुम्हारी स्मृति में
मैं यह कविता लिखता हूँ —
एक सूक्ष्म दीपशिखा,
जो तुम्हारे उजाले के आगे
कंपकंपाती रहती है।

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