आख़िर कितनी आज़ादी चाहिए तुम्हें...

आख़िर कितनी आज़ादी चाहिए तुम्हें,
क्या ख़ुद से भी ज़्यादा?
ज़ंजीरों को तोड़ते-तोड़ते
कहीं रिश्तों की डोर न टूट जाए।

मुझे नहीं चाहिए इतनी आज़ादी,
कि अपनों की खैरख्वाह निगाहें भी पराई लगें,
मुझे नहीं चाहिए वो उन्मुक्ति,
जहाँ अपना ही घर अजनबी हो जाए।

आज़ादी अगर साँस है, तो उसे जीना चाहिए,
पर इतना भी नहीं कि अपनी धड़कनों का संगीत
किसी और के लिए बेमानी हो जाए।

आख़िर कितनी दूर जाओगी तुम,
जब लौटने का रास्ता धुंधला पड़ जाएगा?
मुझे तो वही क़ैद प्यारी है,
जहाँ अपने साथ हों, दुआओं का साया हो।

आज़ादी की भी एक हद है,
उससे आगे बस तन्हाई मिलती है—
और मैं तन्हाई का क़ैदी नहीं बनना चाहता।

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