“माँ आई हैं दस दिनों के लिए।”
लोग कहते हैं—
“माँ आई हैं दस दिनों के लिए।”
पर मैं सोचता हूँ—
माँ कब दूर जाती हैं?
वो तो अनादि-अनंत हैं,
हर क्षण, हर साँस में विद्यमान।
दस दिन क्यों?
माँ तो सदा हमारे हृदय-मंदिर में विराजती हैं।
यह पर्व तो बस स्मरण है,
उनकी अनंत उपस्थिति का उत्सव है।
दूसरे कहते हैं—
“आठ दिन बीत गए,
परसों माँ चली जाएँगी।”
पर माँ कहाँ जाती हैं?
क्या कोई सूर्यास्त होने पर
सूरज को खो देता है?
वो तो अगली भोर में
नवप्रभा बनकर लौटता है।
ये दस दिन
माँ की महिमा का उद्घोष हैं,
उनकी शक्ति का अनुभव हैं,
उनकी कृपा का आलोक हैं।
बाक़ी वर्ष भी तो
माँ की छाया में ही बीतता है।
हम तो हर पल माँ के साथ हैं—
वो हमारी हृदय-धड़कन हैं,
वो हमारे श्वास की लय हैं,
वो हमारे जीवन की दिशा हैं।
सच तो यह है—
माँ कहीं जाती ही नहीं,
वो तो सदा हमारे संग हैं,
हमारे जीवन का
हर एक क्षण
उनकी करुणा और आनंद से
परिपूर्ण है।
रूपेश रंजन
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