नहीं मिलती मुझे वफ़ाएँ....

नहीं मिलती मुझे वफ़ाएँ
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई सदियाँ गुज़र गईं,
सुबह की अफ़रातफ़री में,
और रात की वीरानियों में भी
बस मैं ही रह गया,
अपनी तन्हाई और अपने इकरारनामे के साथ।

कहाँ चले गए मोहब्बत करने वाले?
वो वादे, वो कसमें, वो मासूम दुआएँ,
जिन्हें सुनकर लगता था
जैसे दुनिया यहीं ठहर जाएगी।
अब यहाँ तो सन्नाटा है,
बस कुछ टूटी हुई हसरतें हैं,
जो वक़्त की ज़ंजीरों में बँधी
मुझ पर हँसती हैं।

मुझे चाहिए सबसे परे वो मोहब्बत
जो किसी की मोहताज़ न हो,
जो न किसी के दिए नाम से जिए,
न किसी के छोड़े ज़ख़्म से मरे।
मुझे चाहिए वो मोहब्बत
जो मेरी रूह का हिस्सा हो,
जो मेरी होकर भी मेरी न हो।

वो मोहब्बत जो इबादत जैसी हो,
जिसमें कोई सौदा न हो,
कोई शर्त न हो,
सिर्फ़ ख़ामोश सा एहसास हो
जो दिल की गहराइयों से उठकर
आसमान को छू ले।

मैं चाहता हूँ ऐसा रिश्ता
जो तन्हाइयों में मेरे आँसुओं को सहला दे,
जो भीड़ में भी मुझे
ख़ुद से मिलवा दे।
जो मेरे अंदर की ख़ामोशियों को आवाज़ दे
और मेरी आवाज़ को दुआ बना दे।

मोहब्बत हो — ज़रूरत नहीं।
इश्क़ हो — मगर कैद नहीं।
वो इश्क़ जो दिल की दीवारों पर
एक न मिटने वाली इबारत बन जाए।
वो इश्क़ जो मेरी सांसों में ठहर जाए,
और मेरी रूह में बस जाए।

गर ऐसी मोहब्बत कभी मिल जाए,
तो फिर शिकायत किससे हो?
गर वो मोहब्बत न भी मिले,
तो भी ये तलाश ख़ुद में
एक मुकम्मल सफ़र बन जाए।

— रूपेश रंजन

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