"आज़ादी का शोर"

"आज़ादी का शोर"

आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी—
हर गली में माइक फाड़ती आवाज़ें,
हर चौराहे पर भाषणों की बरसात,
हर झंडे पर चिपकी एक ही पुकार।

थक गया हूँ कमबख़्त ये सुन-सुन के,
जैसे भूखे को रोटी नहीं,
बस नारा चाहिए पेट भरने के लिए।

आज़ादी चाहिए उन्हें—
पर दिमाग़ को सोचने से आज़ाद नहीं करते।
आज़ादी चाहिए उन्हें—
पर औरों को बोलने की आज़ादी छीन लेते हैं।

आज़ादी का शोर बाज़ार में बिकता है,
नेताओं की थालियों में सजता है,
टीवी चैनलों पर नाचता है,
और जनता की जेबों में सिकुड़ जाता है।

ज़रा ग़ुलाम भी बना दो मुझे
अपनी इस आज़ादी का—
ताकि देख सकूँ कि तुम्हारे नारे
कैसे मेरे सपनों की हड्डियाँ चबाते हैं।

अगर यही आज़ादी है—
तो ग़ुलामी ही भली,
जहाँ कम से कम धोखे का शोर नहीं होता।

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