मुझे कविताओं में पिघला दो....
मुझे कविताओं में पिघला दो,
जहाँ शब्द केवल अक्षर न रहें,
बल्कि चेतना की नदियाँ बनकर बहें।
वे ठहरें भी,
थिरकें भी,
नृत्य करें, कूदें,
फाँदें सीमाओं की दीवारें—
और अपने साथ ले चलें समस्त अस्तित्व को।
ऐसे शब्द चाहिए—
जो मानव-प्रकृति का संपूर्ण चित्र रच दें।
जहाँ दुःख हो, तो करुणा बन जाए,
जहाँ पीड़ा हो, तो बोध की सीढ़ी बन जाए।
जहाँ प्रेम हो, तो ब्रह्मानंद का स्पर्श मिले,
और जहाँ सुख हो, तो संतोष की शांति टपके।
शब्द—जो समझा सकें
संसार की अनंत गतियों को,
जीवन से मृत्यु तक की परिक्रमा को।
आदि से अनंत तक का रहस्य,
और अंत से पुनर्जन्म की संभावना।
मुझे उन कविताओं में ढाल दो,
जहाँ मनुष्य स्वयं को पहचान सके,
जहाँ आत्मा और ब्रह्म
एक क्षण के लिए ही सही—
किन्तु एकाकार हो जाएँ।
कविताएँ केवल भाव न रहें,
बल्कि मार्ग बन जाएँ—
अज्ञान से ज्ञान की ओर,
मायाजाल से मुक्ति की ओर।
रूपेश रंजन
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