क्या ही मरूँगा मैं, कभी नहीं मर सकता मैं।
क्या ही मरूँगा मैं,
कभी नहीं मर सकता मैं।
मौत से डरूँ?
नहीं —
मैं तो हर रोज़ जीता हूँ,
हर रोज़ टूटता हूँ,
और हर रोज़ अपने दर्द को
लफ़्ज़ों में बदल देता हूँ।
मैं सोचता हूँ,
और सोचूँगा ही,
वो जाने या न जाने —
एक दिन मेरी ख़ामोशी भी
उससे बातें करेगी।
मैं बोलूँ या न बोलूँ,
लिखूँ या न लिखूँ,
मेरी सांसों में उसका नाम
हमेशा गूंजता रहेगा।
तू जा,
चली जा —
मेरी राहों से,
मेरे ख्वाबों से,
मेरे आज से।
पर मेरे कल से नहीं...
क्योंकि वहाँ मैं तुझे
हर पंक्ति में ज़िंदा रखूँगा।
पहले तुझसे मिलने पर लिखता था,
तेरे हाथों की ख़ुशबू,
तेरी हँसी का जादू।
अब तुझसे बिछड़ने पर लिखूँगा,
तेरी चुप्पियों का बोझ,
तेरे जाने की चुभन।
मेरी कलम तेरे ग़म को
काग़ज़ पर गिरा देगी,
और हर शब्द तेरे नाम की
मिट्टी से महकेगा।
तू चाहे हज़ार दूर चली जा,
मेरे लफ़्ज़ तुझे ढूंढ लेंगे,
किसी शाम की तन्हाई में
तेरे कानों में फुसफुसा देंगे –
कि मैं आज भी लिख रहा हूँ,
तेरे लिए ही लिख रहा हूँ।
Comments
Post a Comment