जहाँ अहंकार की ऊँची दीवारें खड़ी हों, वहाँ सत्य का एक भी दीपक नहीं जलता।
जहाँ अहंकार की ऊँची दीवारें खड़ी हों,
वहाँ सत्य का एक भी दीपक नहीं जलता।
जहाँ “मैं” अपनी परछाईं फैलाता है,
वहीं ज्ञान के दरवाज़े मौन हो जाते हैं।
मन का घमण्ड जब काँच सा टूटता है,
तभी आत्मा का प्रकाश झरनों सा फूटता है।
स्वयं को मिटाना पड़ता है धूल की तरह,
तभी मिलती है सत्य की गहराई सरल सा।
जो अपने भीतर से “मैं” को विसर्जित कर दे,
वही ब्रह्म की नदी में अविरल बहता है।
जो स्वयं को समर्पित कर देता है अनंत को,
वही अज्ञान के अन्धकार से मुक्त रहता है।
ज्ञान कोई ग्रंथों में बँधा शब्द नहीं,
यह तो अनुभव का निर्मल जल है।
जो जितना रिक्त होता है भीतर से,
वह उतना ही इस जल से परिपूर्ण होता है।
त्याग दे अपनी सीमाओं को,
छोड़ दे पहचान के कठोर नक़ाब को।
तभी मिलेगी वह निस्सीम शांति,
जिसे संतजन “सत्य” का स्वभाव कहते हैं।
जहाँ अहं नहीं, वहाँ सब कुछ है,
वहीं प्रेम है, वहीं करुणा है।
और वहीं —
ज्ञान का अमृत बहता है,
मौन में, गहराई में,
हमारे भीतर की अनंत दिशाओं में।
रूपेश रंजन
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