“विदा से पहले”...

“विदा से पहले”

दालान में बिखरीं दुल्हन की चूड़ियाँ,
सपनों की सुगंध में भी हल्की सी घबराहट है।
माँ की आँखों का समंदर बार-बार छलक पड़ता है,
और उसके मन में अनकही आहट है।

सिन्दूरी आभा में ढँकी वह,
माथे पर आशाओं की रेखा खींचे हुए,
कांपते हाथों से विदा का आँचल थामे,
भविष्य की अनजान गलियों में झाँक रही है।

सुनहरी चुनरी के नीचे,
हज़ार सवालों की धीमी गूंज छिपी है—
क्या वहाँ भी होगा वही अपनापन?
क्या वहाँ भी उतनी ही गर्मी होगी हाथों की पकड़ में?

बचपन के आँगन की माटी अब दूर हो जाएगी,
गुड़िया की तरह पली भावनाएँ
नए घर की देहरी पर ठिठक जाएँगी।
हँसी के पीछे एक गहरी साँस,
जो सिर्फ़ वह खुद सुन सकती है।

कितने वर्षों की सीखी बातें,
अब परख के क्षण में उतरेंगी—
“बात कम करना”, “सहनशील रहना”,
“सबके दिल जीतना”—
ये सब वाक्य उसकी हथेली पर
मेहंदी के नक़्शों की तरह अंकित हैं।

मगर भीतर कहीं एक चुप सी प्रार्थना,
“मेरी पहचान भी बनी रहे” की।
नए रिश्तों के जाल में,
अपने स्वर की आहट न खो जाए।

पालकी-सी स्मृतियों में
माँ के आँचल की महक
अब तक साथ है,
और पिता की थमी हुई हथेली
उसके कांपते कंधे को ढाँप रही है।

उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कान है,
पर आँखों में समंदर का नमक—
सपनों की नाव को नए घाट लगाना है,
और खुद को नया आकार देना है।

ये सिर्फ़ विदा नहीं,
ये उसके मन की पहली उड़ान है,
जहाँ डर भी है, साहस भी,
और एक मौन संकल्प भी—
कि वह सिर्फ़ “किसी की बेटी” नहीं,
बल्कि “स्वयं का अस्तित्व” बनकर रहेगी।

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