ले चलो न फिर वहीं, जहाँ ख़्वाब भी जागते हैं और ख़ामोशियाँ भी बातें करती हैं...
ले चलो न फिर वहीं,
जहाँ ख़्वाब भी जागते हैं
और ख़ामोशियाँ भी बातें करती हैं,
जहाँ बस तुम हो,
और मैं हूँ,
और बाकी सारी दुनिया कहीं खो जाती है।
ख़ामोश रात हो,
ग़ुमसुम हवाएँ हों,
तारों की महफ़िल में चाँदनी का परदा बिछा हो,
और हम दोनों उस परदे के नीचे
अपने राज़ बाँट रहे हों,
बिना कहे, बिना सुने –
सिर्फ़ आँखों से।
कुछ अनकही बातें हों,
जिन्हें हम कहना ही न चाहें,
क्योंकि डर हो
कि वो लफ़्ज़ों में उतर कर
अपनी मासूमियत खो न दें।
बस तुम्हारी साँसों की आहट हो,
मेरी धड़कनों का शोर हो,
और हम इस भीड़-भाड़ से दूर
ख़ुद में गुम हों।
ज़रा सोचो –
रात का दामन,
खुला आसमान,
टूटते हुए तारे,
और मैं तुम्हारा हाथ थामे
ख़ुदा से सिर्फ़ ये दुआ माँग रहा हूँ
कि ये लम्हा ठहर जाए,
ये ख़्वाब कभी टूटे नहीं।
मर भी जाऊँ अगर,
तो क्या गिला,
गर आख़िरी बार
तुम्हारे हाथ में मेरा हाथ हो,
तुम्हारी आँखों में मेरा नाम हो,
और आसमान गवाह हो
कि मोहब्बत का सफ़र मुकम्मल हुआ।
कितनी छोटी सी ख़्वाहिश है ना –
न कोई शहर, न कोई शोर,
न कोई ताजमहल चाहिए,
बस ये खामोश रात,
ये चाँद, ये तारे,
और तुम्हारा साथ –
बस इतना ही काफी है
मेरे जीने और मरने के लिए।
— रूपेश रंजन
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