मैं ग़रीब हूँ, बहुत ग़रीब हूँ।
मैं ग़रीब हूँ,
बहुत ग़रीब हूँ।
कैसे न होऊँ ग़रीब,
मैं लिखता जो हूँ न — यही तो मेरी मुफ़लिसी है।
मैं अपनी रचना ख़ुद पढ़ लूँगा,
कौन और पढ़ेगा उसे?
कोई पढ़ भी ले तो क्या बदल जाएगा?
शायद...
शायद उसे अच्छा लगे,
शायद एक पल को ठहर जाए उसका मन।
पर मैं तो ग़रीब ही रहूँगा,
क्योंकि कोई मेरी पंक्तियाँ खरीदने नहीं आएगा।
किसी ने मुझसे कहा भी तो नहीं था लिखने को,
ये तो मेरे दिल की जिद थी,
मेरे दर्द की जुबान थी।
पढ़ना एक बात है,
पर उसके लिए जेब से कुछ निकालना —
वो दूसरी बात है।
मेरी कविताएँ शायद लोगों के दिल तक पहुँच जाएँ,
पर मेरे घर तक रोटी नहीं पहुँचती।
मैं शब्दों में अमीर हूँ,
पर दुनिया के तराज़ू में अब भी
ग़रीब हूँ... बहुत ग़रीब हूँ।
रूपेश रंजन
♥ ♥
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