“गांधी और गीता का सत्य”

“गांधी और गीता का सत्य”






रात शांत थी,
चाँद की रोशनी चरखे पर पड़ रही थी,
गांधी बैठे थे दीपक संग,
हाथ में “भगवद् गीता” थी।

उनके होंठों पर मंत्र नहीं,
विचारों की शांति थी,
आँखों में युद्ध नहीं,
पर भीतर धर्मयुद्ध चल रहा था।

वो कहते थे —
“गीता कोई धर्मग्रंथ नहीं,
वो जीवन की दिशा है,
जो हर पथिक को साहस देती है।”

वो शब्दों में नहीं जीते थे,
वो तो गीता को साँस की तरह जीते थे,
हर ‘कर्म’ उनके लिए
पूजा का विस्तार था।

उन्होंने कहा —
“गीता सिखाती है,
कर्म करो, फल की चिंता मत करो,”
और यही बना उनका जीवन सूत्र।

वो न अर्जुन थे,
न कृष्ण,
पर उनके भीतर दोनों का संवाद था।

अर्जुन का संशय —
"क्या सही है?"
कृष्ण का उत्तर —
"जो सत्य है, वही धर्म है।"

वो जानते थे,
कि मनुष्य की सबसे बड़ी लड़ाई
बाहर नहीं, भीतर होती है।

उनकी प्रार्थना सभा में
गीत नहीं, गीता गूँजती थी,
और हर शब्द
उनकी आत्मा को निर्मल करता था।

वो कहते थे —
“सत्य की खोज कोई बाहरी यात्रा नहीं,
वो भीतर के रण का परिणाम है।”

गीता के प्रत्येक श्लोक में
उन्होंने एक नई क्रांति खोजी,
“अहिंसा” का अर्थ
उन्होंने वहीं से पाया।

कृष्ण ने कहा — “क्षमा में बल है,”
और गांधी ने उसे
अपने जीवन में उतार दिया।

जहाँ दुनिया ने युद्ध चुना,
वहाँ उन्होंने मौन चुना,
जहाँ लोग रक्त से क्रांति चाहते थे,
वहाँ उन्होंने सत्य से प्रकाश फैलाया।

गीता ने उन्हें सिखाया —
“आसक्ति त्यागो,”
और उन्होंने त्याग दिया
धन, वस्त्र, सत्ता, यहाँ तक कि स्वयं।

वो कहते थे —
“कृष्ण ने कहा था,
जो अपने मन को जीत ले,
वही सच्चा विजेता है।”

इसलिए उन्होंने अपने भीतर की
इच्छाओं, भय और अहंकार से युद्ध किया।

गीता का प्रत्येक अध्याय
उनके जीवन का अध्याय बन गया,
“संजय” उनके भीतर बैठा
सतत वर्णन करता रहा।

वो गीता को पढ़ते नहीं थे,
वो गीता में जीते थे।
हर सुबह, हर निर्णय,
उसके किसी श्लोक की गूँज होती थी।

जब किसी ने पूछा —
“बापू, आपकी राजनीति का आधार क्या है?”
तो उन्होंने कहा —
“गीता मेरा संविधान है।”

उन्होंने बताया —
“धर्म का अर्थ पूजा नहीं,
कर्तव्य है।”

और इस एक पंक्ति ने
संसार के धर्म को पुनर्परिभाषित कर दिया।

वो कहते थे —
“गीता हमें कर्मयोग सिखाती है,
जहाँ फल नहीं, नीयत प्रधान है।”

इसलिए वो कभी परिणाम से नहीं डरे,
कभी हार से विचलित नहीं हुए,
क्योंकि उन्होंने अर्जुन की तरह
कृष्ण की वाणी सुन ली थी।

उनका संघर्ष गीता का संवाद था,
जहाँ युद्ध का अर्थ
मन का संतुलन था।

उन्होंने कहा —
“अहिंसा ही सच्चा शौर्य है,
क्योंकि हिंसा तो सहज है,
पर संयम दुर्लभ।”

गीता के शब्दों में उन्होंने
“शक्ति” नहीं, “शांति” देखी।
उन्होंने कहा —
“शक्ति वही जो मन को स्थिर करे।”

जब जेल के अंधकार में बैठे,
तो उन्होंने गीता को दीप बना लिया।
हर श्लोक उनके लिए
प्रकाश का कण था।

वो कहते थे —
“गीता मुझे आत्मबल देती है,
सत्याग्रह उसी से जन्मा है।”

उनकी आँखों में जब आँसू आए,
तो गीता की पंक्तियाँ
उनकी पलकों पर ठहर गईं।

कृष्ण का उपदेश —
“समत्वं योग उच्यते” —
उनके जीवन का सूत्र बन गया।

उन्होंने सिखाया —
सुख-दुःख समान देखना,
जीत-हार में संतुलित रहना,
यही सच्चा योग है।

उनकी आत्मा अर्जुन की तरह
हर क्षण प्रश्न करती रही,
और उनका विवेक —
कृष्ण की तरह उत्तर देता रहा।

जब कोई कहता — “आप डरते नहीं?”
वो मुस्करा कर कहते —
“गीता पढ़ने वाला
मृत्यु से नहीं डरता।”

उन्होंने गीता को
ग्रंथ नहीं, गुरू माना,
जिसने उन्हें सिखाया —
"सेवा ही साधना है।"

वो जब प्रार्थना सभा में बैठते,
तो गीता के शब्द
उनकी शांति बन जाते।

“जो दूसरों के कल्याण में लगा है,
वही मेरा भक्त है,”
— इस श्लोक को उन्होंने
जीवन का केंद्र बनाया।

उन्होंने सिखाया —
“भक्ति का अर्थ पूजा नहीं,
कर्म में ईश्वर की उपस्थिति है।”

इसलिए उनके हर निर्णय में
एक श्लोक की झलक थी।

जब वो नमक कानून तोड़ते,
तो भीतर से गूंजता था —
“धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।”

वो जानते थे,
कि धर्म किसी जाति का नहीं,
वो हर आत्मा का सत्य है।

गीता ने उन्हें सिखाया
“त्याग में शक्ति है,”
और उन्होंने त्याग कर ही
इतिहास रचा।

वो कहते थे —
“मैं गीता का पाठक नहीं,
उसका सेवक हूँ।”

और यह सेवा
उनके कर्मों में झलकती रही।

उनकी मृत्यु के क्षण में भी
गीता जीवित थी,
क्योंकि उनके अंतिम शब्द —
“हे राम” — वही तो गीता का सार थे।

कृष्ण का संदेश —
“सत्य अमर है,”
वो गांधी बनकर लौटा था।

आज भी जब कोई सत्य बोलने का साहस करता है,
तो वो वहीं होता है —
गांधी, गीता के साथ,
मौन, पर ज्वलंत।

वो अब भी अर्जुन को सिखाते हैं —
“डरो मत,
सत्य में ईश्वर है।”

और इसीलिए
उनकी समाधि नहीं,
उनकी आत्मा जीवित है —
हर गीता पाठ में,
हर सच्चे कर्म में।

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