“सत्य का तीर्थयात्री”

“सत्य का तीर्थयात्री”



वो चला था न नंगे पाँव संत की तरह,
पर उसके हर कदम से धरती धड़क उठी,
उसका मार्ग कठिन था,
पर उसके इरादे लोहे से भी सशक्त थे।

ना उसके पास सोने का रथ था,
ना किसी ताज की चमक,
सिर्फ एक छड़ी,
और हृदय में सत्य का दीप।

वो न राजा था, न सैनिक,
फिर भी दुनिया झुकी उसके आगे।
क्योंकि वो चला था —
एक ऐसे पथ पर जहाँ सत्य ही तीर्थ था।

वो कहता था —
“सत्य मेरा ईश्वर है,
और अहिंसा उसकी साधना।”
यही उसका गीता-पाठ था।

उसकी यात्रा सड़कों पर नहीं,
आत्मा के भीतर चलती रही,
हर पड़ाव एक परीक्षा थी,
हर परीक्षा एक प्रार्थना।

वो गिरा कई बार,
पर उठ खड़ा हुआ मुस्कराते हुए,
क्योंकि उसे पता था —
सत्य के पथ पर हार नहीं होती,
सिर्फ अनुभव बढ़ता है।

दुनिया ने उसे पागल कहा,
कुछ ने उसे सन्यासी,
पर इतिहास ने कहा —
“वो तीर्थयात्री था सत्य का।”

उसकी आँखों में चमक थी,
जो दीपक नहीं, अग्नि थी,
उसकी वाणी में ममता थी,
जो माँ के स्पर्श जैसी कोमल थी।

वो जब बोलता था,
तो शब्द नहीं, दर्शन झरते थे,
उसकी चुप्पी भी
आवाज बन जाती थी लाखों के लिए।

वो मंदिर नहीं बनवाता था,
पर मनुष्य के भीतर ईश्वर जगाता था।
उसकी प्रार्थना कोई कर्मकांड नहीं,
बल्कि जीवन की सरलता थी।

चरखा उसके लिए तपस्या थी,
हर सूत एक संकल्प,
हर धागा एक शपथ —
“स्वावलंबन ही स्वराज है।”

वो कहता —
“दूसरे को बदलने से पहले,
अपने भीतर का अन्याय मिटाओ।”
और यही उसकी तीर्थयात्रा का पहला मील था।

वो दांडी चला —
सागर तक नहीं, आत्मा तक,
नमक से नहीं,
स्वाभिमान से भरा वो चलना।

हर बूंद में उसने देखा,
मानव का अधिकार,
हर रेत के कण में देखा,
आज़ादी का विस्तार।

उसके लिए हर व्यक्ति एक देवता था,
हर गरीब एक गुरु,
हर सत्य एक शरण।

वो कभी युद्ध में नहीं गया,
पर उसकी लड़ाई सबसे बड़ी थी,
क्योंकि वो लड़ता था —
झूठ, भय, भेदभाव से।

जब उसने अंग्रेज़ों की आँखों में देखा,
तो तलवारें नीचे झुक गईं,
क्योंकि वहाँ नफ़रत नहीं,
सिर्फ सत्य का तेज़ था।

उसकी भूख कोई दुर्बलता नहीं,
वो तपस्या थी,
जो अन्याय को पिघला देती थी।

वो जब उपवास करता था,
तो उसका शरीर सूखता था,
पर आत्मा और विशाल हो जाती थी।

वो कहता था —
“मनुष्य की असली ताक़त उसकी करुणा है,”
और यही करुणा
उसका शस्त्र बनी।

उसकी सादगी में शान थी,
उसकी मौन में वाणी,
उसकी कमजोरी में बल था,
उसकी मृत्यु में जीवन।

उसकी यात्रा का कोई अंत नहीं था,
हर गाँव में, हर दिल में
उसके पगचिह्न आज भी धड़कते हैं।

वो सिखाता था —
“सत्य कभी मरता नहीं,
वो बस नए रूप में लौटता है।”
और सचमुच, हर पीढ़ी में वो लौट आता है।

कभी बच्चे के प्रश्न में,
कभी किसान के पसीने में,
कभी स्त्री की हिम्मत में,
कभी बूढ़े की दुआ में।

वो धर्म का ठेकेदार नहीं,
धर्म का साक्षी था।
उसने मंदिरों की दीवारें नहीं उठाईं,
दिलों की दीवारें गिराईं।

वो कहता था —
“अगर आँख के बदले आँख लोगे,
तो सारी दुनिया अंधी हो जाएगी।”
और उसकी ये वाणी
मानव सभ्यता का दर्पण बन गई।

उसने रामराज्य का सपना देखा,
पर राम मूर्तियों में नहीं,
जीवन के आचरण में ढूंढे।

वो कहता था —
“सच्चा भक्त वो नहीं,
जो जप करे,
बल्कि वो जो सत्य पर अडिग रहे।”

हर कठिनाई में उसका विश्वास
एक पर्वत जैसा था,
जो न डिगा, न टूटा,
बल्कि और ऊँचा हुआ।

जब गोलियाँ चलीं,
वो गिरा,
पर उसके “हे राम” में
सारी मानवता खड़ी रही।

वो मर नहीं गया,
क्योंकि विचार मरते नहीं।
उसका शरीर धरा में मिला,
पर उसकी आत्मा आज भी घूमती है,
हर उस जगह जहाँ अन्याय है।

वो अब भी चलता है —
किसी गरीब की झोपड़ी में,
किसी किसान की आँखों में,
किसी बच्चे की मासूमियत में।

वो अब भी मुस्कराता है,
जब कोई सच्चा कर्म होता है,
जब कोई झूठ बोलकर भी पछताता है,
वो वहीं खड़ा होता है।

वो तीर्थयात्री था —
पर मंदिर तक नहीं गया,
वो मनुष्य के हृदय तक पहुँचा।

उसकी यात्रा कोई इतिहास नहीं,
एक निरंतर चलती हुई सच्चाई है,
जो पीढ़ियों से पार जाती है।

आज भी जब कोई सत्य बोले,
वो वहीं होता है,
जब कोई करुणा दिखाए,
वो पास होता है।

गांधी कोई नाम नहीं,
एक जीवित तीर्थ है —
जहाँ हर मनुष्य जा सकता है,
अगर उसके भीतर सच्चाई बसती है।

हे सत्य के तीर्थयात्री,
तेरी राह अनंत है,
तेरा व्रत अमर है,
तेरा नाम हर हवा में गूँजता है,
और तेरी छाया —
हर आत्मा का आश्रय बन चुकी है।

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